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________________ अष्टादशः चरितम् आकर्णपूर्णानि शरासनानि कृत्वैव लक्ष्येषु निपात्य वृष्टीः । अन्योन्यमिष्वस्त्रविदः समेताः समन्ततः 'संविविधुः प्रसह्य ॥९॥ गजाधिरूढस्तु निपात्यमानास्ते शङ्कवो हस्तिषु बद्धपिच्छाः । शिखण्डिनः पर्वततुङ्गकूटान्निलीयमाना इव पर्वतेषु ॥ १० ॥ तेषां तु संनाहवतां गजानां मुखेषु संयन्त्रिवचोवितानाम् । आदन्तवेष्टादितरेतरस्य दन्ता ममणुढलोहबद्धाः ॥११॥ ते तोमराघातविभिन्नगात्राः प्रचक्षरल्लोहिततीव्रधाराः । गजा मदान्धाः समरे रिपूणामौत्पातिकाम्भोधरभीमरूपाः ॥ १२॥ सर्गः मन्यमयमयIचमचयरमा HIROIRALAGHEIRDIRE शस्त्र-संचालनमें अत्यन्त पटु दोनों ओरके सैनिक अपने-अपने लक्ष्यों पर एकटक आँख गड़ाकर शरासन (धनुष ) को कानके पासतक खींच ले जाते थे, तब बाण छोड़कर अकस्मात् ही एक-दूसरेको वेध देते थे। यह दृश्य सारे समरांगणमें उस समय लगातार दृष्टिगोचर होता था ॥९॥ विजयमंत्रीका प्रतिरोध हाथियों पर आरूढ़ योद्धाओंके द्वारा शत्रु हाथियों पर ही चलाये गये पूछ युक्त शंकु ( विशेष प्रकारके भाले ) उनकी विशाल देहोंमें फँस जाने पर ऐसे मालम देते थे मानों पर्वतोंके ऊँचे-ऊँचे शिखरोंमें मोर घुस गये हैं और उनके पंखे ही बाहर रह गये हैं ॥ १० ॥ युद्ध में लिप्त हाथियोंके शरीर भी संनाह ( कवच ) से ढके हुये थे तो भी जब वे कुशल महाबतोंके द्वारा आगेको हाँके जाते थे तो वे एक-दूसरेसे भिड़ जाते थे तथा संनाहके कारण शरीरमें कहीं भेद्य स्थान न मिलनेके कारण लोहेसे मढ़े हुए उनके विशाल दाँत एक दूसरेके मुखोंमें पूरेके पूरे धंस जाते थे ॥ ११ ॥ हस्तियुद्ध तोमर आदि तीक्ष्ण तथा विशाल आयुधोंके आघातसे हाथियोंकी देहें फट जाती थीं, घाँवोंमेंसे रक्तकी मोटी-मोटी धाराएँ वेगके साथ बह निकली थीं। किन्तु वे मादक द्रव्य पिलाकर उन्मत्त किये गये थे फलतः वे भीमकाय पशु उस युद्ध में शत्रओंके लिए प्रलयकालीन मेघोंके समान भयंकर और घातक हो रहे थे ॥१२॥ CEIGIT [३३१ न्याचाराम १. क संविदधुः। २. [ परिक्षरल्लोहित ]| ALS Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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