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बराङ्ग चरितम्
अष्टादका सर्गः
केषांचिदास्यामि सकुण्डलानि पादाश्च केषांचिदथाम्बुजाभाः। कराः स्फुरत्काञ्चनभूषणाढ्याः शस्त्रप्रहाराववनौ निपेतुः ॥७१॥ 'किरीटपट्टोज्ज्वलहारसूत्रैश्छत्रध्वजैश्चामरकेतुमाल्यैः । करीन्द्रघण्टाहयकिङ्किणीभिः कृतोपहारेव मही बभासे ॥ ७२॥ अथेन्द्रसेनश्च हि देवसेनः प्रबद्धवैरा दृढबद्धकक्षौ। कृतप्रतिज्ञावसुरेन्द्रकल्पौ परस्परं ताववलोक्य वीरौ ॥७३॥ स्वनामगोत्राण्यभिधाय रोषात्सद्मविभले वदने प्रकृत्य । आदाय तान्यस्त्रवराणि दोभिल्लासयन्तावभिमानया तौ ॥ ७४ ।।
कानोंमें शोभायमान कुडलोंके साथ हो किन्हींके शिर कटकर पृथ्वीपर लोट जाते थे, दूसरोंके लाल कमलोंके तुल्य सुन्दर तथा सुकुमार पैर कटकर उचटते थे। तथा अन्य लोगोंके हाथ जिनमें स्वच्छ शुद्ध सोनेके आभूषण चमकते थे, वे ही तीक्ष्ण शस्त्रके लगते ही कटकर भूमिपर गिर जाते थे ॥ ७१ ।।
पूरीकी पूरी समरस्थलीमें मुकुट, कटि तथा पदके पट्ट चमचमाते हुए मणि-मुक्तामय हारोंकी लड़ें, छत्र, ध्वजा, चामर, मालायुक्त केतु, हाथियोंके बड़े-बड़े घंटे तथा घोड़ोंकी छोटी-छोटो मधुर शब्द करनेवाली घंटियाँ (घुघरू ) फैली हुई थीं। ऐसा मालूम होता था कि योद्धाओंने यह सब वस्तुएँ समरस्थली पर चढ़ायी थीं ।। ७२ ।।
___ इस प्रकार घोर संगाम होते-होते मथुराधिप इन्द्रसेन तथा ललितेश्वर देवसेन भी एक दूसरेके सामने जा पहुंचे थे। वे दोनों ही अभेद्य युद्ध-वेशमें थे । दोनोंका पारस्परिक वैर-भाव भी चरम सीमापर पहुंच चुका था। वे असुरोंके सम्राटोंके समान एक-दूसरेका नाश करनेकी प्रतिज्ञा किये हुए थे ।। ७३ ।।
नायकोंका द्वन्द्व जब इन दोनों वोरोंने अपने समक्ष शत्र को देखा, तो क्रोधके उत्कट उभारके कारण उनकी भृकुटियाँ टेढ़ी हो गयी थीं, मुखमण्डल अत्यन्त विकृत हो गये थे। उन्होंने अपने-अपने गोत्र तथा नाम कहकर अपना परिचय दिया था, प्रतिशोध लेनेकी अभिलाषासे उत्तमसे उत्तम शस्त्रोंको हाथोंसे उठाकर बाहुओं द्वारा तौल रहे थे तथा अभिमानके पूरमें बहते हुए कह रहे थे॥७४ ॥
RSमराममयमा
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१.क तिरीट।
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