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बराङ्ग
संप्राप्य युढे विजयावतंसं स्वसैनिकानां मुबमावधानः । महाबलः सिंहनिनावमुच्चैर्ननाद चेतो द्विषतां च भिन्दन ॥ ६७॥ अथोभयोभूपतयो नृसिंहाः स्वमानविश्रम्भरसोरुवीर्याः । स्वान्स्वान्करीन्द्रानधिरुह्य सर्वे संना युद्धाभिमुखा बभूवः ॥६॥ ततः करीन्द्राः प्रतिगर्जयन्तो वाग्वीरनादागतमेघतुल्याः । परस्परं पदकराग्रदन्तैर्जघ्नुः सयोधाः समुपेत्य चण्डाः ॥ ६९ ॥ मुख'ण्डिभिः शक्त्यसियष्टिभिश्च चक्रगदाभिः कणपश्च टङ्कः। समुदरैस्तोमरसर्वलोहैः परस्परं ते च भशं प्रजह्न ॥७०॥
अष्टावक्षः सर्गः
चरितम्
का राजा सूर्यभी आकाशमें कठिनाई से दिखता है तथा उसको कान्ति देखते ही बनती है। इसी प्रकार कुशल योद्धा कश्चिद्भट के शत्रुओंरूपो मेघोंको तितर-वितर कर दिया था फलतः उसकी पराक्रम-श्री अत्यन्त प्रखर चारुभट रूपमें उदित हो उठी थी॥६६॥
संहारमय युद्धका आरम्भ उस महासमरमें उसने विजयके मुकुटको अपने पराक्रमसे प्राप्त किया था। अपने नेताकी विजयके कारण उसके सैनिकोंके आनन्दको भी सीमा न थी। उसने स्वयं भी विजयोल्लासमें अति उन्नत स्वरसे नाद किया था जिसे सुनकर शत्रुओंके । हृदय काँप उठे थे ॥ ६७ ।।
इस घटनाके होते ही दोनों राजाओंको सेनाओंके सिंहसमान पराक्रमी योद्धाओंने अपने-अपने हाथी पर आरूढ़ होकर संघर्षके प्रधान केन्द्र की आर चल दिये थे। क्योंकि वे सब महा पराक्रमो थे। उन्हें आत्मविश्वास था और अपने सम्मानको ही सबसे बढ़कर ऐश्वर्य मानते थे ।। ६८॥
इसके उपरान्त ही देखा गया था कि भयंकर रूपसे चिंघाड़ते हुए हाथी बढे जा रहे थे। वे गम्भीर गर्जनाके साथ, उमड़ते हुए भीषण मेघोंके समान प्रतीत होते थे। वे सब हाथी उस समय इतने क्रूर और कुपित हो गये थे कि आपसमें पैर, शुण्डा तथा अग्रदन्तोंके द्वारा दारुण आघात कर रहे थे। ऐसे कराल रूपमें टकराते थे कि योद्धा सहित शत्र हाथीको समाप्त कर देते थे ।। ६९ ॥
हाथियोंपर आरूढ़ योद्धा भी शिखण्डियों ( सपक्ष वाण ) शक्तियों, खड्गों, दण्डोंके द्वारा आघात करके, चक्र, गदा, कणप तथा टांकियोंकी चोंटोंसे तथा पूरेके पूरे लोहनिर्मित मुद्गर तथा तोमरोंकी वर्षाके द्वारा एक दूसरेको बड़ी त्वरा तथा
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। निर्दयतासे मारतको चोटोंसे तथा पूरेके पूरे लोहानसिपक्ष वाण ) शक्तियों, खड्गों,
१. [ शिखण्डिभिः] ।
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