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अष्टादशः
वराज चरितम्
सर्गः
शक्ति सुतीक्ष्णां त्वरया विगृह्य सूपेन्द्रसेनोरसि निमुमोच। विभिद्य वक्षस्स्थलमीश्वरस्य ममज्ज भूमावतिचण्डवेगा । ६२॥ शक्तिप्रहारेण विभिन्नदेहं भ्रान्तेक्षणं वीक्ष्य वणिक्सुतस्तु। उद्धृत्य खड्गं च तटित्प्रकाशं शिरश्च तस्य प्रचकर्त शूरः ॥ ६३ ॥ चलज्ज्वलत्कुण्डलमण्डितास्यं मणिप्रभारज्जितसत्किरीटम्। शिरः पपातेन्द्रसुतस्य तस्य सौरं यथा मण्डलमस्तमूनि ॥ ६४ ॥ मानोन्नतं नावनतं परेभ्यो दोलायमानं भ्रमरावलीकम् । शिरः सपाद विनिपात्य भूमौ प्रफुल्लपमाकृतिमादधार ॥६५॥ प्रभज्जनप्रेरितनीरदे खे दुःप्रेक्षतां याति यथा ग्रहेन्द्रः। तथारिपक्षक्षपणोदितथीः कश्चिद्भटश्चारुभटो बभूव ॥६६॥
TALASERASNARELATIमचममा
ऐसी अवस्थामें हस्तिराज अप्रतिमल्लने सूड, पैर तथा दाँतोंकी प्रहारोंकी मार देकर उसकी सूडको अपनी सूड़के द्वारा उपार लिया था ।। ६१ ॥
- इसी समय कश्चिद्भटने अति तीक्ष्ण शक्तिको पलक मारते भरमें उठाकर उपेन्द्रसेनके वक्षस्थलमें भोंक दिया था। । उस शक्तिका वेग इतना दारुण था कि वह राजपूत्रके वक्षस्थलको पार करती हई जाकर पृथ्वोमें धंस गयी थी ।। ६२॥
शक्तिके मारक आघातसे शरीर भिद जाने पर विचारे उपेन्द्रसेनकी आँखें घमने लगी थीं। उसे इस अवस्थामें देखते हो तथोक्त वणिकपुत्रने बिजलीके समान चमकते हुए खड्डको निकालकर वीरोचित ढंगसे उसके शिरको काट लिया था ॥ ६३ ।।
मथुराके युवराजका सुलक्षण मुख चंचल तथा प्रकाशमान कुण्डलोंसे भूषित था तथा विशाल शिपर बँधे हुए उत्तम मुकुटमें जड़े हुए मणियोंकी प्रभासे मुख, मस्तक आदि सब ही अंग रक्तवर्ण हो गये थे, ऐसी शुभ छटायुक्त शिर जब कटकर भूमिपर लुड़क गया तो ऐसा मालूम हुआ था कि मानो अस्त हुआ रक्तवर्ण सूर्यमण्डल ही अस्ताचलपर जा पड़ा था। ६४ ॥
उपेन्द्रको वीरगति वह शिर अहंकारके मदमें सदा ऊँचा ही रहा था, कभी किस विरोधीके सामने न झुका था किन्तु समयके फेरसे बाध्य I होकर उस समय जोरसे ध्वनि करता हुआ पृथ्वीपर जा गिरा था। उस समय भी हिलाते हुए घघराले वालोंरूपी भ्रमरोंकी पंक्तियाँ उसपर गूंज रही थी अतएव उसकी वह आकृति पूर्ण विकसित कमलकी आशंका उत्पन्न कर देती थी ॥ ६५ ॥
जब जोरोंसे हवा ( आँधी) बहतो है तो उसके झोंके मेघोंको देखते ही देखते कहींसे कहीं उड़ा ले जाते हैं तब ग्रहों १. [सोऽपीन्द्रसेनोरसि । २. क सत्तिरीटम् । ३. [ सपातं ] ।
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