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________________ बराङ्ग चरितम् द्वादशः सर्गः सहोपविष्टा नृपाङ्गनाभिर्वररूपिणोभिः नरदेवदेवी । तुतोष पुत्रस्य हि राज्यलाभं संश्रुत्य राजप्रहितान्मनुष्यात् ॥ १ ॥ अभ्यागतं प्रीति निवेदनाय संपूज्य वस्त्राभरणप्रदानैः । नरेन्द्रपत्नी स्वजनस्य मध्ये अद्यास्मि देवीति मुदाभ्यवोचत् ॥ २ ॥ श्रुत्वा वराङ्गस्य हि यौवराज्यं सर्वाः सपत्न्यो गिरमित्थमूचुः । अस्माकमस्मत्सुतबान्धवानां पुरापि नाथासि विशेषतोऽद्य ॥ ३ ॥ तासां समाजे नृपसुन्दरीणां काचिन्नृपेष्टा मृगपूर्वसेना | अमर्षसंक्षोभितमानसा सा अधोमुखी स्वं भवनं जगाम ॥ ४ ॥ द्वादश सर्ग मातृ-स्नेह तथा विमाता असूया अन्तःपुरके सौन्दर्य-गुणों की खान महाराजा धर्मसेनकी पट्टरानी अन्य अन्तःपुरमें विराजमान थीं कि उसी समय नृपतिवरके द्वारा भेजे गये किसी यौवराज्याभिषेककी सूचना दी। पुत्रकी राज्यप्राप्तिका समाचार पाते ही वे आनन्दविभोर हो उठी थीं ॥ १ ॥ व्यक्ति इस प्रिय तथा सुखद समाचारको लेकर आया था उसका महारानीने वस्त्र, आभूषण आदि भेंट करके स्वागत सम्मान किया था। हर्षसे प्रसन्न होकर उसने अपने सगे सम्बन्धियोंसे भी उसी समय यह कहा था कि 'मैं आज वास्तवसे देवी हुई हूँ ॥ २ ॥ Jain Education International रानियों तथा एकसे एक रूपसियोंके साथ संदेशवाहकने महारानीको उनके पुत्र वरांगके किन्तु वरांग युवराजपद पानेकी सूचना सुनकर ही महारानीकी सौतोंने ये वाक्य कहे थे 'हे महारानी आप हम लोगों, हमारे पुत्रों तथा सगे सम्बन्धियोंको पहिलेसे पालक पोषक थीं और आजसे तो विशेषकर आप हम लोगोंकी रक्षक हैं ||३|| राजाकी इन अनुपम सुन्दरी रानियोंके समूहमें एक रानी राजाको बहुत प्यारी थी, उनका नाम ( सेना शब्दके पहिले मृग शब्द जोड़ने से बनता ) मृगसेना था। उक्त समाचार सुनकर उनका चित्त क्रोधसे इतना अधिक खिन्न हो उठा था कि उन्होंने अपना मुख नीचा कर लिया और वहाँसे उठकर अपने प्रासादमें चली गयी थी ॥ ४ ॥ For Private & Personal Use Only न्याय द्वादशः सर्गः [१९५] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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