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________________ वरांग चरितम् म्यान्मा है ? कसौटी पर कसने के बाद हो सोनेको शुद्धि और सचाई शोघ्र हो प्रकट हो जाती है ऐसा आप लोग निश्चित समझें ॥ ८३ ॥ इस प्रकारसे बक-झक करनेके बाद उन अशिष्ट राजपुत्रोंने एक दूमरेको ओर देखा और संकेन द्वारा अपने कुकर्त्तव्यका निश्चय कर लिया था । इसके उपरान्त वे न निर्दय राजकुमार सुषेणके नेतृत्व में प्रहारोंका आदान-प्रदान ( युद्ध) करनेकी इच्छासे उठ खड़े हुए थे ॥ ८४ ॥ इत्येवमाभाष्य नरेन्द्रपुत्राः परस्पराक्तविनिश्चयार्थाः । ततः सुषेणप्रमुखा नृशंसा उत्तस्थुरत्र व्यवहारबुद्ध्या ।। ८४ ।। ते मन्त्रिणस्तान्सहसा समीक्ष्य विजृम्भितक्रोधविरूढ दर्पान् । निष्केवलं वाक्कलह प्रवृत्तान्निवारयां राजसुतान् बभूवुः ॥ ८५ ॥ युवनृपतिमुदीक्ष्य राजपुत्रास्तुतुषुरुदारधियः स्वभावभद्राः । सकलुषहृदयाः प्रवृद्धरागा रुरुषुरनुष्ठितमत्सरास्तथान्ये ॥ ८६ ॥ अथ युवनृपतिविशालपुण्यः सकलदिगन्तविसर्पिकीर्तिमालः । अवनिमुदधिमेखलाकलापां मुदितजनां स बभूव जेतुकामः ॥ ८७ ॥ इतिधर्मंकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थं संदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते युवराज्यलाभो नाम एकादशमः सर्गः । इसी समय अनन्तसेन, आदि मंत्रियोंने देखा कि सुषेण, आदि अहंकार तथा हठ भी रौद्रताका रूप धारण कर रहा है, तथा व्यर्थ ही उन्हें समझा बुझाकर मूर्खता करनेसे रोक दिया था ।। ८५ ।। में १. [ एकादश: ] । जो राजा तथा राजपुत्र स्वभावसे ही शान्त और भले थे तथा जिनका विवेक विशाल था वे युवक राजाको देखकर उनकी योग्यताओंके कारण हृदयसे संतुष्ट हुए थे । तथा अन्य राजकुमार जिनके मन मलीन थे, स्वार्थं बुद्धि और पक्षपात बढ़ा था तथा जो दूसरेका अभ्युदय देखकर जलते थे वे वरांगको राजसिंहासनपर देखकर आपाततः कुपित हुए थे ॥ ८६ ॥ युवक राजा वरांगका पुण्य विशाल था, उनको कीर्ति दशों दिशाओंके सुदूर ओर-छोर तक फैली थी अतएव उन्होंने पिताके द्वारा जीती गयी उस पृथ्वीको दिग्विजय करनेका निर्णय किया जिनकी करधनी उसे चारों ओरसे घेरनेवाले समुद्र हैं। और जिसपर सुखी और सम्पन्न लोग निवास करते हैं ।। ८७ ।। चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द अर्थ-रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथा में युवराज्यलाभ नाम एकादश सर्गे समाप्त । Jain Education International राजकुमार सहसा ही अत्यन्त कुपित हो उठे हैं उनका मुखसे वाचनिक कलह कर रहे हैं। तब उन्होंने जाकर For Private & Personal Use Only एकादशः सर्गः [ १९४] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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