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वराङ्ग चरितम्
तत्रोपविश्य वदधुनेत्रा कराग्रसंधारितवामगण्डा । विचिन्तयन्तो कृतमीश्वरेण निनिन्द सा दुःकृत 'पाक मित्थम् ॥ ५ ॥ न स्यात्सुतः किं नृपतेः प्रियो वा के वा गुणा मत्तनये न सन्ति । ज्येष्ठे सुते राज्यधुरः समर्थे पराभिषेकं तु कथं सहिष्ये ॥ ६ ॥ इत्येवमात्मन्यविचायं कार्यं मुहुर्मुहुः कोपवशाज्ज्वलन्ती । सुषेणमाहूय विविक्तदेशे प्रोवाच राज्ञी सुतमात्मनस्तम् ॥ ७ ॥ नो वत्स कार्यं विदितं त्वयैव वराङ्गनाम्नो युवराज्यलाभम् । ज्ञात्वा यतः क्षीणनृपात्मशक्तिः स्थितोऽसि तूष्णीं धिग्पौरुषत्वम् ॥८॥ नीचानुवृत्तेः प्रियजीवितस्य निरस्तसत्वस्य हि मन्दशवतेः । परावधूतार्थपराक्रमस्य का जन्मवत्ता भुवि पुत्र पुंसः ॥ ९ ॥
वहाँ जाकर बैठते ही उसकी आँखोंसे आँसुओंकी धार बह पड़ी थो। शोक और गालको हथेली पर रख लिया था। रह रहकर वह यही सोचता थी कि सर्वशक्तिमान देवने कृत पापोंके परिणामकी निन्दा करती थी ॥ ५ ॥
अनुतापके कारण उसने अपने बाँये यह क्या किया ? तथा अन्तमें पूर्व
• क्या मेरा पुत्र, राजपुत्र नहीं है, वह राजाको प्यारा क्यों नहीं है ! ऐसे कौनसे गुण हैं; जो मेरे लाड़लेमें न हों । संसारमें सुयोग्य बड़े लड़केपर ही पिता राज्यभार देता है, किन्तु उक्त गुणयुक्त मेरे बड़े बेटेको छोड़कर दूसरेका राज्याभिषेक कैसे सह्य होगा ॥ ६ ॥
रानी मृगसेना निराशाजन्य क्रोधकी लपटोंसे रह-रहकर झुलस उठती थो अतएव वह उक्त प्रकारकी द्विविधाओंके कारण मन ही मन अपना कर्त्तव्य निश्चित नहीं कर पाती थी। फलतः उसने अपने प्रियपुत्र सुषेणको एकान्तमें बुलाया और उसको निम्न प्रकार से कहना ( भरना ) प्रारम्भ किया था ॥ ७ ॥
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कुमाताको भर्त्सना
हे बेटा ! वरांग नामके राजपुत्रको युवराज पद प्राप्त हो रहा है इस बातका तुम्हें स्वयं ही पता लगाना चाहिये था न? यदि तुम्हें यह बात पहिलेसे ज्ञात थी और इसे जानकर भी अपने आपकी या राजाकी शक्तिको कम समझकर तुम चुप रहे, तो तुम्हारे पुरुषार्थ और पुरुषत्व दोनोंको धिक्कार है ॥ ८ ॥
• जीवनके मोहमें पड़कर जो व्यक्ति हीन पुरुषों के समान आचरण करने लगता है, शक्तिके कम होनेके कारण जो पुरुष १. क साधुः कृत । २. [ ज्ञात्वा च यत्क्षीण° ] ।
३. [ धिगपौरुष त्वम् ]
४. म वा जन्मव्रर्ता (?) ।
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द्वादश: सर्गः
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