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________________ बराङ्ग चरितम् विरक्तभृत्यान्यतिदीर्घसूत्राण्यल्पानि मित्राण्यतिदूरगानि । संबन्धमात्राभिनिविष्टबुद्धेः कियच्चिरं' तस्य नृपस्य राज्यम् ॥ ३० ॥ अष्टाविमे भूपतयः प्रधाना धर्मार्थषड्भागभुजः पृथिव्याम् । यैर्भ्राजते संनिहितैर्धरित्री द्यौरष्टभिस्तैरिव दिग्गजेन्द्रः ॥ ३१ ॥ महीमहेन्द्रोऽथ महेन्द्रदत्तो द्विषंतपश्चापि यथार्थनामा | सनत्कुमारो मकरध्वजोऽपि समुद्रगुप्तो विनयंधरा ॥ ३२ ! वज्रायुधश्चक्रभृता समानः पराक्रमैश्वर्यवपुर्गुणेन । मित्रसहचापि हि देवसेनात्कि वाधिकास्ते न भवेयुरीशाः ॥ ३३ ॥ हाथ लग जाय, तो समझिये कि सारी पृथ्वी उसके हाथ लग गयी है ।। २९ ।। यदि किसी राजाके अनुगामी और सेवक उससे संतुष्ट नहीं फलतः हर एक कामको धीरे-धीरे अन्यमनस्क होकर करते हैं । यदि उसके मित्र राजाओंकी संख्या बहुत थोड़ी है और जो हैं, वे भी इधर-उधर बिखरे ( बहुत दूर ) देशों में हैं। और वह राजा स्वयं भी यदि हर समय अपने सम्बन्धियोंके सहारे रहता है तो आपही बताइये उसका राज कितने दिन तक टिकेगा ॥ ३० ॥ आदर्श नृप आगे कहे गये आठ राजा ही इस पृथ्वी के राजाओंमें प्रधान हैं क्योंकि वे आगमके अनुकूल नीतिसे अपनी प्रजाओंका पालन करके उनके धर्म और अर्थं पुरुषार्थ के षष्ठांशको ग्रहण करते हैं । सब सम्पत्तियोंका भण्डार होनेपर भी यह पृथ्वी इसीलिये सुशोभित है कि इसपर उन राजसिहोंकी चरण रज पड़ती है, जैसे कि आकाश विश्वविख्यात आठ दिग्गजोंकी उपस्थितिके ही कारण धन्य है ॥ ३१ ॥ ऊपर निदिष्ट आठ प्रसिद्ध राजाओंमें महाराज महेन्द्रदत्तका नाम सबसे पहिले आता है क्योंकि वे इस पृथ्वीपर बिराज - मान इन्द्र ही हैं, दूसरे महाराज द्विषंतप तो 'यथा नाम तथा गुणः' हैं क्योंकि उन्होंने अपने शत्रुओंको पराजित करके नष्ट ही कर दिया है, इसके बाद महाराज सनत्कुमार, मकरध्वज, समुद्रगुप्त और विनयंधरके नाम आते हैं ।। ३२ ।। इनके बाद महाराज वज्रायुधका स्थान है जो अपने पराक्रम, प्रभुत्व, विभव, स्वास्थ्य, सौन्दर्य, सदाचार, आदि गुणों के कारण चक्रवर्ती समान हैं, अन्तमें महाराज मित्रसह हैं जो अपने बन्धुबान्धवोंके ही उत्कर्षको सह सकते हैं । हे महाराज ? आप ही बताइये कि ये सब प्रचण्ड पृथ्वीपति क्या महाराज देवसेनसे बढ़कर न होंगे || ३३॥ १. म कियच्चरं । २. म धर्मार्थ । ३. म विनयंवरश्च । Jain Education International Vale & Personal Use Only द्वितीय: सर्गः [२६] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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