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________________ वराङ्ग चरितम् तां चित्रसेनाभिहितां विचित्रां वाणों निशम्योत्तमधीश्चतुर्थः । प्रत्यब्रवीन्नीतिमतानुसारी वचोऽर्थसंपत्ति गुरुत्वबुद्धया ॥ २६ ॥ बलीयस्तुल्यबलेन योगे । अभूतपूर्वोत्तम सौहृदस्य दोषा यतस्तेन खलूपदिष्टास्ते दूरनष्टा नयमार्गवृत्त्या ।। २७ ।। दारेषु मातर्यथ भृत्यवर्गे सुते पितर्यन्यतमे जने वा । विश्रम्भयोगो न तु तादृशः स्याद्यादृग्दृढे मित्र उदारबुद्धौ ॥ २८ ॥ मित्रं बलीयः स्वनुरागि पुंसामलभ्यमन्यत्र हि दैवयोगात् । तल्लभ्यते चेद्व लिना समग्रा वसुन्धरा हस्तगतैव तस्य ॥ २९ ॥ हो जायंगे । इस प्रकार एक प्रबल मित्र हाथसे निकल जायेगा ) जो कि अचिन्तनीय अनथका मूलकारण हैं । अतएव जिसकी सम्मतिके अनुसार उल्टा सीधा काम कर डालनेसे मित्र भी शत्रु हो जाय उसे हम कार्य कौशल नहीं कह सकते ऐसा आप निश्चित समझें ॥ २५ ॥ देवसेन तृतीय आमात्य चित्रसेनके द्वारा उपस्थित किये गये विचित्र तर्कोको सुनकर प्रखरबुद्धि और देवसेनने उक्त सबही तर्क वितर्कोंका समाधान करते हुए, राजनीतिके अनुसार अपनी सम्मति दी, जो महत्ता के सर्वथा अनुकूल थी ।। २६ ।। संन्यबल, अर्थबल और सहायबल सम्पन्न राजा जिसके साथ पहिलेसे किसी भी प्रकार संधि नहीं हुई है— के अपने ही समान प्रबल शक्तिशाली किसी दूसरे राजासे मैत्री सम्बन्ध स्थापित कर लेनेपर, तृतीयामात्य चित्रसेनने जिन-जिन अनर्थोंकी संभावना बतायी है उनपर यदि नोतिशास्त्र के अनुसार गम्भीरतासे विचार किया जाय, तो वे सबके सबही कपोल कल्पित सिद्ध होते हैं ॥ २७ ॥ Jain Education International अनुभवी चतुर्थं आमात्य 'विचारणीय विषयकी मित्रशक्ति नीति कहती है कि इस संसार में किसी भी व्यक्तिको अपनी माता या पितापर, धर्मपत्नी या औरस पुत्रपर, अत्यन्त घनिष्ठ बन्धुबान्धव या अनुरक्त आज्ञाकारी सेवकोंपर उतना विश्वास नहीं करना चाहिये जितना कि एक दृढ़ मित्रपर करना चाहिये; यदि वह मित्र विवेकी और बिशालहृदय हो तो ॥ २८ ॥ वास्तवमें इस संसार में किसीको भी ऐसा सच्चा मित्र मिलता ही नहीं है, जो सब तरह शक्तिसम्पन्न होते हुए भी उसे हृदयसे स्नेह और आदर करता हो । पूर्व पुण्यके प्रतापसे किसी सौभाग्यशाली प्रबल व्यक्तिको ऐसा ( उक्त प्रकारका ) मित्र ४ For Private & Personal Use Only द्वितीय: सर्गः [२५] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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