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वराङ्ग चरितम्
जनस्य सर्वस्य हि भर्तृबन्धुः स्वाभाविकं मित्रमकृत्रिमत्वात् । यत्कृत्रिमं स्यात्फलवच्च मित्रमुदारमेतत्करणीयमस्य ॥ २२ ॥ वचोऽजितेनाभिहितं निशम्य स चित्रसेनो गिरमित्युवाच । को देवसेनादितरः पृथिव्यां नरेश्वरः पक्षबद्धिमान्स्यात् ।। २३ ॥ असंहितं प्राक्कुलमुत्तमं च संधिस्यमानं बलिना परेण । नोपैति विश्रम्भमुपैति शङ्कां प्रयोजने विक्रियते च भूयः ॥ २४ ॥ न सा सुनन्दा परिणीयते चेत्स्यान्मित्रभेदः स हि दोषमलः । यस्थापचारेण च यान्ति मित्रायमित्रता वैन त कार्यवित्सः ॥ २५ ॥
द्वितीयः सर्गः
चमचमaasaLINERARIचान्यापक
जितना कि वे स्वयं उसे समझते है ।। २१ ।। ॥ अकृत्रिम स्नेही होनेके कारण सबकी ही माताका भाई अर्थात् मामा उनका स्वाभाविक सहायक और हितैषो होता है
क्योंकि इन लोगोंके साथ स्वार्थोंका संघर्ष नहीं रहता है । लेकिन जो कृत्रिम ( नया सम्बन्ध या उपकार द्वारा बनाया जाता है) मित्र होता है वह बड़ा लाभदायक होता है इसीलिए नीतिशास्त्र विशाल-हृदय कृत्रिम मित्र बनानेकी शिक्षा देता है ।। २२ ।।
चित्रसेन द्वितीयामात्य अजितसेनके द्वारा उपस्थित किये गये सुझावको सुन लेनेके बाद तृतीय अमात्य चित्रसेनने निम्न प्रकारसे कहना प्रारम्भ किया । हे महाराज ? मातुलराज महाराज देवसेनके सिवा इस पृथ्वीतलपर कौन ऐसा दूसरा राजा है जिसकी
सैन्य, शक्ति और सम्पत्ति उनसे अधिक हो या जिसके सहायक, सहगामी और अनुयायी राजाओंकी संख्या उनके पक्षके राजाओंसे में अधिक हो ।। २३ ॥
किसी सैन्य, अर्थ, सहायबल सम्पन्न राजवंशके पहिलेसे किसी भी प्रकारकी संधि न हुई हो और बादमें यदि वह राजवंश किसी दूसरे महाशक्तिशाली राजवंशके साथ संधि करता है तो तटस्थ या स्वाभाविक मित्र ( मातुल, फूफा आदि) राष्ट्रोंको भी उसपर विश्वास नहीं होता है बल्कि उसके ऊपर शंका ही अधिक बढ़ती जाती है। इतना ही नहीं संधि या सम्बन्धके स्वाभाविक प्रयोजनको भी बहुत कुछ विकृतरूप ही दिया जाता है ।। २४ ।।
__अतएव यदि हम सुनन्दाके साथ राजकुमारका विवाह न करेंगे तो इसका परिणाम मित्रभेद अर्थात् स्वाभाविक मित्र राजासे सम्बन्ध विच्छेद होगा (कारण हम जिस किसो राजवंशमें भी कुमारका व्याह करेंगे उसका प्रयोजन केवल व्याह न समझकर, महाराजा देवसेन हमसे खिंचकर अपनी राजकुमारीको किसी दूसरे राजवंशमें व्याह देंगे और उसके ही प्रबल समर्थक १.क अमन्त्रतां।
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