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बराज चरितम्
एकविंशः सर्गः
ततो वराङ्गः पितरौ प्रणम्य तौ विमुच्य सर्वान्स्वजनान्यथाक्रमम् । कृतानुयात्रान्मुदितैर्महाजनैर्ययौ महा नगरादथोत्तमात् ॥ २५ ॥ पितुनियोगाद्वरयोधमन्त्रिणो विपश्चितोऽथागमसागरान्तगाः । अनुप्रयाताः सुतराज्यदुर्धराः प्रयातमत्ते' मदवितां द्विषाम् ॥ २६ ॥ मुहूर्तनक्षत्रविलग्नसंपदं विलोक्य सद्भिः सह चारुविग्रहः । मुदा प्रतीतः कमलायतेक्षणो नगेन्द्रमापन्मणिमन्तमीश्वरः ॥२७॥ सरस्वती नाम नदी च विश्रुता मणिप्रभावान्मणिमान्महागिरिः। तयोर्नदीपर्वतयोर्यदन्तरे बभूव चानर्तपुरं पुरातनम् ॥ २८ ॥
बावसायमचाचण्या
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आज्ञा मिलते ही युवराज वरांगने चरणोंमें प्रणाम करके अपने धर्मपिता तथा पिता दोनोंसे विदा ली थी। इसके उपरान्त क्रमशः सब ही सगे सम्बन्धियोंसे भेंट करके उनसे भी जानेको अनुमति प्राप्त की थी।
सहयात्री चयन इस सबसे निवृत्त होकर उसने उन्हीं लोगोंको अपने साथ जानेको आज्ञा दी थी जो कि प्रसन्नता और उत्साहपूर्वक उसका साथ देना चाहते थे। जब सब तैयारियां हो चुकी तो बड़े वैभवके साथ उसने उत्तमपुरसे प्रयाण किया था ॥ २५ ॥
महाराज धर्मसेनकी आज्ञासे अनुभवी तथा कुशल सेनानायक, योद्धा, मंत्री तथा आगमोंरूपी समुद्रोंके पारंगत असाधारण विद्वान, जो कि पुत्रके नतन राज्यके भारको सहज ही सम्हाल सकते थे, ऐसे यह सब कर्मचारी उसके पीछे-पीछे । । गये थे ॥ २६ ॥
श्रेष्ठ मुहूर्त, अनुकूल नक्षत्र और विशेष लग्न आदिको देखकर, प्रभुता और वैभवके अहंकारसे उन्मत्त शत्रुओंके साक्षात् कालने ही विजय प्रयाण किया था। श्रेष्ठ पुरुषोंके साथ विजयको निकले हुए राजा वरांगका आन्तरिक हर्ष अपने आप बाहर
प्रकट हो रहा था, उसके स्वभावसे सुन्दर शरीरकी कान्ति अनुपम थी तथा कमलोंके समान बड़ी-बड़ी आँखें देखते ही बनती थी। | वह प्रयाण करता हुआ मणिमन्त पर्वत पर जा पहुंचा था ।। २७ ॥
आनर्तपुरका पुनःस्थापन सरस्वती नामकी नदी अत्यन्त प्रसिद्ध थी तथा मणियोंकी छटासे प्रकाशमान मणिमन्त महापर्वत भी उस समय सर्वविश्रुत था। इस सरस्वती नदी और मणिमन्त गिरि इन दोनोंके बीच में जो विशाल अन्तराल है उसी भूमिपर प्राचीन समयमें आनर्तपुर बसा हुआ था ॥ २८ ॥ ..क प्रघातमात्रां, [°मस्तं . गर्वितद्विषाम् ]। २.म नरेन्द्रमापन्मणि मन्त्रमीश्वरः ।
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