SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 440
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वराज परितम् एकविंशः सर्गः DTARAKHAIREPARENERALREATRE पुरा यदूनां विहगेन्द्रवाहनो जनार्दनः कालियनागमर्दनः । रणे जरासन्धमभीनिहत्य यन्ननर्तवान्नर्तपुरं ततोऽभवत् ॥ २९ ॥ वराङ्गराजो मगराजविक्रमो जितारिपक्षो विजितेन्द्रियः स्वयम् । अनन्तनामप्रमुखैः स्वमन्त्रिभिः सुमन्त्र्य सम्यग्बहुनीतिपारगैः ॥ ३०॥ पुरापि यत्कालपरंपरागमान्नरेन्द्रसंक्षोभविशेषजर्जरम् । समीक्ष्य तद्वस्तुविदा प्रदर्शितं निवेशयामास पुरं स पूर्ववत् ॥ ११ ॥ पुरस्य बाह्य गिरिकूटसंकटैस्तडागवापीपृथुदीर्घिका'ह्रदैः । विबुद्धपः कलहंसमालिभी रराज सोद्यानवनैः समाकुलम् ॥ ३२॥ बभूव यस्मिन्परिखा समुद्रवदिगरिप्रकाशः परिवेष्टितश्च यः। हिमाद्रिकूटोपममास गोपुरं शरत्सिताभ्रप्रतिमा गहावली ॥ ३३ ॥ पक्षियोंका राजा गरुड़ जिनका वाहन है तथा यमुना नदीमें कूदकर जिन्होंने भीमकाय कालिया नागका वध किया था उन्हीं यदुवंश शिरोमणि नारायण श्रीकृष्णजीने आक्रमण करके जिस स्थानपर पहिले युगमें जरासंघका वध किया था तथा विजयोल्लासमें मस्त होकर वहीं पर नृत्य किया था इसी कारण उस स्थान पर बसाये गये नगरका नाम आनर्तपुर पड़ गया था ॥ २९ ॥ मृगोंके राजा सिंहके समान पराक्रमी, इन्द्रिय जेता तथा समूल नाश करके शत्रुपक्षके विजेता राजा वरांगका ध्यान जब उक्त इतिहासके ज्ञाताओंने, उस पौराणिक स्थानकी ओर उसका आकृष्ट किया तो उसने उसे स्वयं देखकर जाना समझा था ।। ३० ॥ कि किसी समयकी वह सुसम्पन्न नगरी कालक्रमके अनुसार शत्र राजाओंके भीषग क्षोभसे उत्पन्न आघातोंके कारण जर्जर होकर मिट्टीमें मिल गयी थी। राजनीति शास्त्रोंके पारंगत तथा सूक्ष्म विचारक अनन्तसेन आदि अनुभवी मंत्री उसके । साथ ही थे, अतएव उनके साथ शान्तिपूर्वक परामर्श करके राजा वरांगने उस स्थानपर पहिलेके ढंगसे ही नगर निर्माण कराया था ॥ ३१ ॥ नगर वर्णन नूतन नगरके बाहरके भागको शोभा भी अद्भुत ही थी, क्योंकि उसके चारों ओर कृत्रिम तथा अकृत्रिम दोनों प्रकारके पर्वतोंकी शिखरोंकी बाढ़ सी खड़ी थी। तालाब, बावड़ी, बड़ी-बड़ी दीधिकाएँ तथा छोटे-छोटे जलाशयोंने उस सारे प्रदेशको घेर रखा था, इन जलाशय आदिमें सुन्दर कमल खिले थे, जिनपर सुन्दर तथा मधुरभाषी हंसोंके झुड खेल रहे थे ।। ३२॥ इस नगरको चारों ओरसे घेरकर खोदी गयी खाई समुद्रके समान गहरी और चौड़ी थी। उस नगरका विशाल प्राकार १. म दीर्घिता। SURESHERSITERamesapaayeesearSHREATERese ..] Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy