SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 401
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बराङ्ग चारतम् अनङ्गमुक्तः स च तीक्ष्णबाणः संप्राप्य वेगादथ चित्तलक्ष्यम् । दवाह तस्यास्तनुमन्तरन्तो वह्निर्यथान्तः सुषिरं द्रुमस्य ॥ ४१ ॥ नालङ्गकृता सान सखीभिरासे संभाष्यमाणा न ददौ च वाचम् । नैवार्स' किचिन्न पपौ न सास्मो र कन्दर्पदर्पाभिहता वराङ्गी ॥ ४२ ॥ कदाचिदुद्यानवनैकदेशे स्थिता पुनः सा स्मितनिश्चलाक्षी । कश्चिद्भटं चित्रकला विदग्धा लिलेख पुंस्त्र' नृपतेः शिलायाम् ॥ ४३ ॥ अवेक्ष्य चित्ररथमती विद्धं तद्दुर्लभत्वं च विचिन्तयन्त्याः । सदीर्घनि:श्वासमुखं रुदन्त्या हिमाहताम्भोजमिवास तस्याः ॥ ४४ ॥ कामदेवको शुभ अवसर मिला और उनने तुरन्त ही मनोरमाके अनुभवहीन हृदयको अपने पुष्प-वाणोंसे वेध दिया था ॥ ४० ॥ जगज्जेता कामदेवसे द्वारा छोड़ा गया अति तीक्ष्ण वाण अत्यन्त वेगसे मनोरमाके हृदयरूपी सुकुमार लक्ष्यमें जा धँसा था। और उसके शरीरको उसी प्रकार तपाने लगा था जिस प्रकार वृक्ष के अन्तरंग में प्रज्वलित आग स्वाभाविक अवस्था में भीतर अत्यन्त शीतल वृक्षको भस्म करने लगती है ॥ ४१ ॥ विरह व्यथा प्रेमपीड़ासे अनभिज्ञ वह भोली राजकुमारी न तो अपना शरीर संस्कार व शृंगार करती थी, न सब सखियोंके साथ बैठती, खेलती थी, बार-बार पूछे जानेपर भी उत्तर न देती थी, न तो कुछ पीती ही थी । कामदेवकी शक्ति से परपोड़ित सुकुमारी सुन्दरी राजपुत्रीको नहाने-धोने तकका भी ख्याल न था ।। ४२ ।। उद्यानमें जाकर वह किसी एकान्त कोनेमें जाकर बैठ जाती थी और अपने प्रेमीके ध्यानमें मग्न होनेपर उसके सुन्दर विशाल नेत्र सर्वथा निश्चल हो न होते थे अपितु मुखमण्डलपर एक अकारण स्मित भी खेलता रहता था। वह राजपुत्री चित्रकलामें दक्ष थी । अतएव शिलाके ऊपर कश्चिद्भटका रेखाचित्र बनाती थी ।। ४३ ।। अत्यन्त सफल चित्रमें कश्चिद्भटको देखकर तथा उसकी दुर्लभताको सोचकर विचारी हताश हो जाती थी। मुख निराशासूचक दीर्घं निःश्वास निकलता था। और आंखोंसे आँसूकी धार बह पड़ती थी उस समय उसका मुख देखनेपर उस विकसित कमलकी श्री का स्मरण हो आता था जिसपर पाला पड़ जाता है ।। ४४ ।। १. [ नैवाश ] । २. [ साञ्चीत् ] । Jain Education International ६. [ पुत्री ] । For Private & Personal Use Only 2210 एकोनविंशः सर्गः | ३८६ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy