________________
वराङ्ग चरितम्
सखी तिरोऽभ्येत्य ततस्तदानीं वैश्चिन्त्यमस्या ह्यधगम्य युक्त्या ।
सा पृष्ठतस्तां शनकैरुपेत्य नेत्रद्वयं कत्पिदधौ कराभ्याम् ॥ ४५ ॥ सख्या: कराग्रप्रतिमर्शनेन मृगीव तत्रास तदानभिज्ञा । तद्वाक्यतः सा विदितानयेति किचित्प्रहस्यात्मनि सा ललज्जे ॥ ४६ ॥ अन्यार्थसंव्रीडनवेपिताजी हस्तद्वयेन प्रममर्ज चित्रम् ।
सखी च तद्वीक्ष्य जयाद वाक्यं चित्रं किमेतद्वद मे निशङ्का' ॥ ४७ ॥ भूयश्च तस्या वदनं निरीक्ष्य ससाध्वसं मूढमनोभवार्ता । Perfect त्वं हि किमर्थमासे वने वदेत्येवमथाभ्यपृच्छत् ॥ ४८ ॥ सा चैवमुक्ता धरणीन्द्रपुत्रो सख्या तदाचारगुणं ह्यवत्या । नैवालि मे कार्यमवश्यभावि क्रीडाप्रसङ्गादहमागतास्मि ॥ ४९ ॥
छिपाये न छिपे
उसी समय कोई सखी आड़मेंसे बढ़कर उसके निकट पहुँचकर बड़ी युक्तिपूर्वक उसको अन्य -मनस्कताको भाँप लेती थी । फिर-धीरे-धीरे पोछेसे उसके अति निकट पहुँचकर अपने कोमल हाथोंसे उसकी आँखोंको दबा लेती थी ।। ४५ ।। सखी की हथेलियों के स्पर्शं द्वारा चैतन्य होकर वह भोली राजकुमारी वन्य हिरिणोकी भाँति डर जाती थी । वह सखीकी बात से यह अनुमान करके कि इसने सब जान लिया है कुछ थोड़ा हँसने का प्रयत्न करती थी, किन्तु अन्तमें अत्यन्त लज्जित हो जाती थी ।। ४६ ।।
इतने पर शेष रहस्यको छिपा लेनेके अभिप्रायसे वह त्वरापूर्वक दोनों हाथोंसे चित्रको पोंछ देती थी । सखी भी उधर देखकर कहती थी 'यह किसका चित्र है, मुझे निशंक होकर बताओ ॥ ४७ ॥
तुरन्त ही सखी ध्यानपूर्वक मनोरमा के मुखको देखती थी और उसपर भय तथा आशंकाकी छाया ही नहीं अपितु कामव्यथाकी स्पष्ट छापको देखकर उससे आग्रहपूर्वक पूछती थी - ' इस वनमें भी तुम किस विशेष प्रयोजनसे बिल्कुल अकेली बैठी हो ?' ॥ ४८ ॥
प्रेम छिपानेका प्रयत्न ललितेश्वरकी राजनन्दिनी सखीके द्वारा उक्त विधिसे पूछे जानेपर उसको ओर देखती थी तथा उसके आचार और
१. [ विशङ्का ] । २. [ ह्यवेत्य ] ।
Jain Education International
For Private Personal Use Only
एकोनविंश: सर्गः
[३९]
www.jainelibrary.org