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एकोनविंशः
इत्थं बुवाणा कुशला सखी सा विज्ञाय तस्या हृदि वर्तमानम् । अन्यापदेशेन सदर्थमन्यं मनःप्रसादार्थमिमां जगाद ॥ ५० ॥ मुखं परावर्तितकान्ति कान्ते ग्लानि गता ते तनुरजतन्वी। 'विगृहसे किं हृदि यव्यलोकमेकाकिनी वोढुममु समर्था ॥५१॥ मातुः पितुश्चैव विलासिनीनां विधम्भनीया तनु साध्वि सख्याः। नियन्त्रणां त्वं मयि संविधत्स्व शक्ता विनेतुं हृदयस्य तापम् ॥५२॥ जानामि विद्या विविधप्रकारां मायामदश्यां मदनप्रयोगम् । आवेशनं भतवशीकृति च यदीच्छसि त्वं प्रववेत्यवोचत् ॥ ५३॥
सर्गः
ITIGADHUSHAIRPURIHAR
गुणोंका अनुमान करके इतना ही कहती थी 'हे आलि ? यहाँ बैठनेमें मेरा कोई अवश्यम्भावी प्रयोजन नहीं है, सहज ही मनोविनोद करती हुई यहाँ आ बैठी हूँ ॥४९॥
मनोभाव लेनेका प्रयत्न अस्पष्ट उत्तर देकर मनोभावको छिपानेवाली राजपुत्रीके मनके वास्तविक भावोंको वह चतुर सखी अनुमानसे जान गयी थी, अतएव उसके हृदयको कुछ हल्का करनेकी इच्छासे किसो दूसरो उत्तम बातको उसके आगे छेड़ देती थो५० ॥
'हे कान्ति ? तुम्हारे स्वाभावकि परम सुन्दर मुखको कान्ति बिल्कुल बदल गयो है। हे कृषाङ्गि! तुम्हारा दुबला पतला शरीर अत्यन्त थक गया है। हृदयमें जो ज्वारभाटा उठ रहा है उसे झूठ ही क्यों छिपाती हो, अकेले-अकेले कहाँ तक सहोगी? ॥ ५१॥
'हे आलि ! प्रेम-प्रपञ्चमें पड़ी रतविलासको इच्छुक युवतियोंके लिये सखियाँ माता तथा पितासे भी अधिक विश्वासपात्र तथा सहायक होती हैं । इसलिए तुम अपनी मनोव्यथाको मेरे साथ बाँट लो, मुझे विश्वास है कि मैं तुम्हारे हार्दिक तापको सम्भवतः दूर कर सकती हूँ ।। ५२ ।।।
मैं भांति-भाँतिकी आश्चर्यजनक विद्याओंको जानती हैं, मैं अदृश्य माया के प्रयोगके साथ कामदेव सम्बन्धी वशीकरण प्रयोग भी कर सकती हैं। दूसरेको उद्दीप्त करना और भतप्रेतको वशमें करना तो मेरे लिए अति सरल है । यदि तुम्हारी इच्छा हो तो अपने मनोभाव कहो।' इतना कहकर वह चुप हो गयी थी ।। ५३ ।।
समसामन्य
[३७.]
1 १. क विगृहसि, [ निगृहसे ] ।
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