________________
बराङ्ग
एकोनविंशः सर्गः
चरितम्
उद्यानपानश्च
नदीविहारैर्वनप्रदेशाद्रिनिरीक्षणैश्च । महाहहर्येषु रतिप्रमोदैः कश्चिद्भटस्तां रमयांबभूव ॥ ३६॥ अन्योन्यसंभाषणसक्तचित्तमन्योन्यसंदर्शनतत्पराक्षम् अन्योन्यमनेषु कृताङ्गरागमन्योन्यमेवं मिथुनं जहर्ष ॥ ३७॥ एवं तयोस्तु प्रथितोरुकीयोः परस्परोद्वतितभोगरत्योः । विश्रम्भभावानुगतप्रणीत्योः कालो व्यतीतः पुरपुण्यमयोः ॥ ३८ ॥ ततः कदाचिन्नुपसेवनाथं कश्चिद्भटाख्यं नृपति विशन्तम् । मनोरमा नाम नरेन्द्रकन्या यदच्छयापश्यदतुल्यशौर्यम् ॥ ३९॥ समीक्ष्य रूपं च युवत्वमस्मिन्नास्थां चकार क्षितिपालकन्या। लब्जावकाशो' मदनस्तदानों हृदि प्रविव्याध मनोरमायाः ॥ ४०॥
गाडानुराग पत्नी पर परम अनुरक्त कश्चिद्भट भी उद्यान विहार, नदियोंमें जलक्रीड़ा, बनके रम्य प्रदेशोंका पर्यटन, पर्वतोंकी प्राकृतिक शोभाका निरीक्षण, विशाल तथा वैभव सम्पन्न राजमहलों में रतिकेलि आदि कार्योंके द्वारा पत्नीका मनोविनोद करता था।। ३६ ॥
आपसमें वार्तालाप करते, करते उनके मन कभी अधाते हो न थे, एक दूसरेको निनिमेष देखते रहनेपर भी उनकी आँखें कभी थकती ही न थीं, उन दोनोंको हो एक सरेके अंग अंगसे गाढ़ प्रोति थी अतएव इस क्रमसे वे एक दूसरेमें लीन होते । जाते थे॥ ३७॥
उनके भोग और रति एक दूसरेका आश्रय पाकर द्वितीयाके चन्द्रमाके समान बढ़ रहे थे, चेष्टाएँ भी पारस्परिक विश्रम्भ और भावगाम्भीर्यको बढ़ा रही थीं। पुण्यकी ख्यातिके समान उनकी प्रोतिगाथाकी कोति भी खूब फैल रही थी। यह जोड़ी ललिलतपुरके पुण्यकी मूर्तिके समान थी। परस्परानुकूल आचरणसे उनका समय आनन्दपूर्वक बीत रहा था ॥ ३८ ॥
मनोरमाका मोह एक दिनकी घटना है कि नृपति कश्चिद्भट महाराज देवसेनके साथ बैठकर योग्य सेवा, आदि जाननेके लिए अन्तःपुरमें प्रवेश कर रहे थे । संयोगवश उसी समय अतुल्य पराक्रमी राजा कश्चिद्भटको सहजभावसे मनोरमा नामको किसी राजपुत्रीने देखा था ॥ ३९ ॥
कश्चिद्भटके शुद्ध रूप और परिपूर्ण यौवनको देखकर उस राजपूत्रीका मन उसपर उलझ गया था, फिर क्या था! १. म शब्दावकाक्षो।
[३६७]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org