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एकोनविंशः
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किं वानयोः पूर्वकृतं तपः स्यात्काराधिताभ्यां खलु देवता वा। व्रतानि कान्याचरितान्युभाभ्यामित्ययब्रवीद्विस्मयफुल्लनेत्रः ॥ ३१ ॥ एवं जनानां स्थितवान्मनस्सु स्वपूर्वनिवर्तितपुण्यभागो। विस्मित्य' कश्चिदभट आत्मबन्धन्रेमे नवैर्बन्धजनैः समेतः ॥ ३२ ॥ नरेन्द्रपुत्रीमनवद्यरूपामवायंकान्तिद्युतिसौकुमायें: रहोविहारेष्वनुवतितैः स्वः स रज्जयामास गुणैर्गुणज्ञः ॥ ३३ ॥ गन्धर्वगोतश्रुतिगन्धयुक्त्या काव्यप्रयोगेन कथाप्रपञ्चैः । नाटयावलोकेन कथाविशेषैस्तस्या मनस्स्वैः स्वबबन्धः वध्वाः ॥३४॥ साप्यात्मनीयललितैरुदारैः कलागुणज्ञानकथाविशेषैः। दाक्षिण्यवेविनयोपचारैजंहार चेतः सततं स्वभः ॥ ३५॥
अथवा किस देवताके अनुपम आदर्शको इन दोनोंके द्वारा आराधन को गयी होगी। अथवा इन लोगोंने कौनसे व्रतों का निरतिचार आचरण किया हागा ? इस प्रकार जब लोग कहते थे तब उनके नेत्र आश्चर्यसे फैल जाते थे। उनके मनमें धामिक आस्था तथा नूतन युगलके प्रति आदरका भाव बढ़ता ही जाता था ।। ३१ ।।
पूर्वभवमें उपाजित पुण्यके फलोंको भोगनेवाला कश्चिद्भट भी इन सब व्यासंगोंमें फंसकर अपने प्रथम बन्धु बान्धवों को भूल गया था तथा नूतन सगे सम्बन्धियोंसे घिरा हुआ प्रसन्नतासे समय काट रहा था ।। ३२ ।।
युवराजकी नूतन पत्नी, ललितपुरकी राजकन्याका रूप सर्वथा खोटहीन था। उसकी अपनी कान्ति, तेज तथा सुकुमारताका आकर्षण भी ऐसा था कि उसके सामने स्थिर रहना असंभव था, फलतः वह गुणी राजपुत्र दिनके विहारमें अपने गुणोंका अनुकूल प्रवाह करके पत्नीको प्रसन्न रखता था ।। ३३ ।।
वह युगल कभी गान्धर्वोके गीत सुनता था, तो दूसरे समय परस्परका वर प्रसंग ( फूलों, इत्र आदिसे सजाने) करते थे। किसी समय काव्य निर्माण तथा विवेचनका रस लेते थे और कथाएँ कहकर मन बहलाते थे, अन्य समय रसमय नाटकोंका अभिनय देखकर अथवा विशेष गल्प कहकर नवोढ़ा पत्नीके चित्तको वह अपनी ओर जोरोंसे खींचता रहता था ।। ३४ ॥
उस वधूका ज्ञान, गुण, ललित कलाओंका अभ्यास तथा वार्तालापकी शैली अति अधिक रसमय, उदार तथा आकर्षक थे, वेषभूषा शिष्ट किन्तु उद्दीपक थे, तथा समस्त आचार विनम्रतासे ओतप्रोत था फलतः पतिके मनको उसने पूर्णरूपसे अपने
वशमें कर लिया था ॥ ३५ ॥ । ५. [ विस्मृत्य ।। २. म बतितस्तैः। ३. [ स बबन्ध ]। ४. म बन्ध्वाः ।
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