SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 710
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वराङ्ग चरितम् अवगाहन - आयुकर्मके क्षयसे प्रगट होने वाला सिद्धोंका वह गुण जिसके कारण वे दूसरे सिद्धोंको भी अपनेमें स्थान दे सकते हैं। अगुरुलघुत्व - गोत्र कर्मके विनाशसे उदित होने वाला सिद्ध परमेष्ठीका गुण । अर्थात् सिद्धों में छोटे-बड़े, पर- अपर आदि कल्पना नहीं रह जाती है । अनुमान - परोक्ष प्रमाणका चतुर्थ भेद । साधनसे साध्यके ज्ञानको अनुमान कहते हैं । तर्क - परोक्ष प्रमाणका तृतीयभेद । अविनाभाव सम्बन्ध या व्याप्तिके ज्ञानको तर्क कहते हैं यथा - जहां भ्रष्टाचार है वहां कुशासन है। गृहस्थाचार—चरित्र मोहनीयके कारण जिसकी घरमें रहनेकी भावना समाप्त नहीं हुई उसे गृहस्थ या गृही कहते हैं । कमाना, गुणियों तथा गुरुओंकी सेवा करना हित-मित भाषी होना धर्म-अर्थ- काम का समन्वय करना, अच्छे स्थान मकानमें सुलक्षणा पत्नीके साथ रहना, लज्जाशील होना, अहार विहार ठीक करना । सज्जनोंका सहवास रखना, विचारक, कृतज्ञ इन्द्रिय जेता होना । धर्म रसिक, दयालु और पाप भीरु होना साधारण गृहस्थाचार है । सात व्यसनका परित्याग और अष्टमूल गुणका स्थूल पालन करने पर गृही पाक्षिक श्रावक कहलाता है । पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंका पालन ही गृहस्था ( श्रावका ) चार है । इसके पालकको नैष्ठिक कहते हैं । ऐसा श्रावक मरण समय आने पर जब समाधि मरण करता है तो वह साधक श्रावक कहलाता है । एकादशम सर्ग मिथ्यात्व - विपरीत दृष्टिको मिथ्यात्व कहते हैं । इसके कारण जीव अदेव, अतत्त्व, अधर्म आदिको देव, तत्त्व तथा धर्म मानता है। सम्यक्त्व - तत्त्वार्थक श्रद्धानको सम्यक्त्व कहते हैं । मूढ - कोशके अनुसार अज्ञ, मूर्ख आदिको मूढ कहते हैं, किन्तु जैन शासनमें इसका पारिभाषिक अर्थ भी है - जो व्यक्ति सागर स्नान, पत्थरका ढेर करना, पर्वतसे गिरना तथा आगीमें कूदने आदिको धर्म समझता है वह 'लोकमूढ़' है। किसी वरकी इच्छासे रागी द्वेषी देवताओंका पूजक देवमूढ़ है । आरम्भी, परिग्रही, संसारी मूर्ख साधुओं का पुजारी गुरुमूढ़ है । वैनयिक - समस्त देवों तथा धर्मों में श्रद्धालुता रखनेको वैनयिक मिथ्यात्व कहते हैं । व्युग्राहित - परिग्रही देवोंको निर्ग्रन्थ कहना, केवलीको कवलाहारी बताना आदि भ्रान्त मान्यताएं व्युद्ग्राहित मिथ्यात्व है । पुद्गल परिवर्तन - द्रव्य परिवर्तनका ही दूसरा नाम है । द्रव्यपरिवर्तना नोकर्म द्रव्य तथा कर्म द्रव्य परिवर्तनके भेदसे दो प्रकार की है । किसी जीवने औदारिकादि तीन शरीर, आहारादि छह पर्याप्तिके योग्य स्निग्ध रूक्ष, वर्ण गन्धादि युक्त किन्हीं पुद्गलोंको तीव्र - मन्द - मध्यम भावसे जैसे ग्रहण किया, उन्हें दूसरे आदि क्षणोंमें वैसेका वैसा खिरा दिया । इसके बाद अनन्तों बार अग्रहीत पुद्गलोंको ग्रहण किया और छोड़ा, मिश्रों ( ग्रहीताग्रहीत ) को अनन्तों बार ग्रहण किया छोड़ा और इस बीचमें ग्रहीतोंको भी अनन्तों बार ग्रहण किया छोड़ा, इस प्रक्रममें जितने समय बाद वही जीव उन्हीं पूर्व ग्रहीत पुद्गल परमाणुओंको पुनः उसी तरह ग्रहण करता है, इस कालको नोकर्म परिवर्तन कहते हैं । कोई जीव आठों कर्मोक पुद्गलोंको ग्रहण करता है और एक समय अधिक आवलि विता कर दूसरे आदि क्षणोंमें उन्हें खिरा देता है, नोकर्म परिवर्तनमें दत्त प्रक्रियाको पूर्ण करके फिर जितने समय बाद वही पुद्गल उसी जीवके उसी प्रकार कर्म बनें, इस कालको द्रव्य परिवर्तन कहते हैं । इन दोनों परिवर्तनकि समयके जोड़को पुद्गल परिवर्तन कहते हैं । वेदक-सम्यकदृष्टि-वेदक अथवा ज्ञायोपशमिक सम्यक्दर्शनका धारक जीव वेदक सम्यक्दृष्टि कहलाता है । अनन्तानुबंधी क्रोध आदि चार कषायोके उपशम, मिथ्यात्व और सम्यक्ििमथ्यात्व के क्षय अथवा उपशम तथा सम्यक्त्व मोहनीयके उदय होनेसे जो तत्वार्थका श्रद्धान For Private & Personal Use Only Jain Education International [६७७] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy