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________________ बराङ्ग वरितस् ततः प्रशस्ते दिवसे तु सार्थः संप्रस्थितो राष्ट्रमभिप्रवेष्टुम् । नरेश्वरः सागरवृद्धिनैव शनैः प्रयातः शिबिकाधिरूढः ॥ ६१ ॥ नटा विटा : कापटिका भटाश्च सार्थानुयाता द्विजजातयश्च । देशान्तरं प्राप्य समान्तरेषु ते तस्य कीर्तिं प्रथयां बभूवुः ।। ६२ ।। द्विषट्सहस्रं तु पुलिवृन्दं जित्वा रणे मत्तकरीन्द्रलील: । कश्चिद्भटः सार्थमथैक एव वने ररक्षेति यशस्ततान ॥ ६३ ॥ ग्रामेषु राष्ट्रेषु पुरेषु चैव विश्रम्य सार्थः खलु तत्र तत्र । शनैः प्रपेदे स्वपुरं पुराणं निर्विघ्न संपादितभाण्डसारः ॥ ६४ ॥ कृतार्थ कार्यं प्रतिसंनिवृत्तं निशम्य ते सागरवृद्धिवृद्धम् । स्त्रियः पुमांसश्च सबालवृद्धाः प्रत्युद्ययुर्नागरिकाः सामग्राः ॥ ६५ ॥ सार्थका ललितपुरको प्रस्थान इसके उपरान्त अत्यन्त शुभ मुहूर्त में सार्थंने आगे आने वाले राष्ट्र में प्रवेश करने के लिये विधिपूर्वक प्रस्थान किया था। उस समय नरेश्वर वरांग भी सार्थंपति सागरवृद्धिके साथ एक पालकी पर चढ़कर धीरे-धीरे चल रहा था ॥ ६१ ॥ धनकी आशासे सार्थके पीछे पीछे चलने वाले नट, विट, कन्थाधारी याचक तथा पुरोहित आदि ब्राह्मणोंने उन सब नये नये देशों में - जिनमें से इस अन्तराल में वह सार्थं गया था - जाकर युवक वीर की विशाल कीर्ति को प्रसिद्ध कर दिया था ।। ६२ ।। " मदोन्मत्त करीन्द्रके समान दारुण प्रहार करनेवाले 'कश्चिद्भट' (किसी योद्धा) ने ( द्विगुणित छह हजार ) बारह हजार प्रमाण पुलिन्दोंके निर्दय समूहकी युद्धमें अकेले ही जीतकर हमारे विशाल सार्थकी गहन वन में रक्षा की थी " यह कीर्ति चारों ओर फैल गयी थी ।। ६३ । विभिन्न ग्रामों, विविध नगरों तथा पृथक्-पृथक् राष्ट्रों में यथा-सुविधा पड़ाव डालता हुआ सागरवृद्धिका सार्थं बिना fair for बाधा मार्ग में लाभप्रद तथा उपयोगी विक्रय वस्तुओंको मोल लेता हुआ धीरे-धीरे उस नगर में जा पहुँचा था जहाँसे वह पहिले चला था ।। ६४ ।। 'नगरका सर्वश्रेष्ठ सागरवृद्धि सेठ अपार सम्पत्तिके अर्जन रूपी कार्यमें सफल होकर फिर नगरको लौट रहा है' यह समाचार सुनते ही पूरे नगरके स्त्री-पुरुष, बच्चे, बुड्ढे आदि सब ही निवासी उसकी अगवानी करनेके लिए आ पहुँचे थे ॥ ६५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only चतुर्दशः सर्गः [ २४९] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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