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बराङ्ग चरितम्
चतुर्दशः सर्ग:
सार्थाधिपो तद्धदि जातहर्षः कृतस्य स प्रत्युपकारमिच्छन् । सबनलक्षं च सुवर्णकोटी ददौ नपायाप्रतिपौरुषाय ॥ ५७ ॥ आनीतमर्थ प्रविलोक्य धीमान्नैवागमद्विस्मयमाभिजातः' । तस्यानुमानं स पुनविदित्वा दत्स्व त्वमिष्टेभ्य इतोत्थमचः ॥ ५८॥ तद्वाक्यतः सार्थमलुब्धबुद्धः शशास सर्व क्रियते तथेति । आज्ञापिताः स्वाजलिभिर्दरिद्रा नटा विटाश्चादधुरादरेण ॥ ५९ ॥ तं स्नापयित्वा व्रणशोणिताक्तं 'क्षिप्तौषधानि व्रणरोपणानि । शमं प्रचक्रुः कतिदिनैश्च स्वाम्याज्ञया ते भिषजां वरिष्ठाः ॥ ६० ॥
कर भी फिर लौट आये हैं।' इस प्रकार अपने आश्चर्यको प्रकट करते हुए सार्थपति तथा सार्थके लोग अब भी आश्चर्यसे मुक्ति नहीं पा रहे थे तथा उनके उत्कट संतोष की भी सीमा न थी ॥ ५६ ।।
इस घटनासे सार्थपति सागरवृद्धिके हृदयमें तो हर्षका समुद्र ही लहरें मार रहा था, रह-रहकर अपने ऊपर किये गये उपकार के परिवर्तनमें कुछ करनेको अभिलाषा उनमें प्रबल हो उठती थी अतएव उत्तम तथा अनुपम लाखों रत्न तथा कोटियों प्रमाण सुवर्ण लाकर उसने अद्वितीय पराक्रमी राजपुत्रके सामने रख दिये थे ।। ५७ ।।
वराग-कश्चिद्भट भेंटरूप से सामने लायी गयी विपुल सम्पत्तिको देखकर विवेकी राजकुमारको थोड़ा भो आश्चर्य या कौतुहल न हुआ था। कारण, वह स्वयं कुलीन था और इससे अनेक गुनी सम्पत्ति का स्वामी रह कुका था । सार्थपतिकी मानसिक भावनाका । अनुमान करके उसने यही कहा था-"आप इस धनराशिको अपने इष्ट तथा प्रियजनोंमें वितरण कर दीजिए । ५८ ॥
उसकी सुमति, लोभके द्वारा न जीती जा सकी थी अतएव उसके कथनके अनुसार ही सार्थपतिने अन्य मुखियोंसे कहा था कि 'जैसा कश्चिद्भट कहते हैं उसके अनुसार काम कर दिया जाय।' इस आज्ञाको सुनकर सार्थके सब नट, विट तथा अन्य दरिद्र वहाँ इकट्ठे हो गये थे । उन सबने हाथ जोड़कर बड़े आदर पूर्वक उस दानको ग्रहण किया था ।। ५९ ।।
पुनः स्वस्थ्य-लाभ सार्थके.साथ चलने वाले उत्तम वैद्योंने सबसे पहिले घावोंके रक्तसे लथ पथ उसके शरीरका सतर्कतासे अभिषेक किया। था फिर क्रमशः घावोंको भर देने वाली उत्तम तथा अचूक औषधिको लगाकर सार्थपतिकी आज्ञाके अनुसार थोड़े ही दिनोंमें
उसके सब घावों एवं दुर्वलताको शान्त कर दिया था ।। ६० ।। । १. [°जात्यः ]। २. [क्रियता]। ३. [ क्षिप्त्वोषधानि] ।
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