SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वरांग चरितम् कुशलोऽस्यतीव । अयत्नतस्त्वं पुनराधमण्यं प्रसव्य यातः कृतोपकारः प्रतिकार होनो गतासवे किं करवाणि ते हि ॥ ५२ ॥ नैवाद्रवत्वं कुलबन्धुदेशान्स्मृत्वापि यांस्तुष्टमना ब्रुवेयम् । कि वा स्वदेशं न गतोऽसि भद्र इति ब्रुवन्विप्रललाप सार्थी ॥ ५३ ॥ वणिग्जनानां करमर्शनेन शीतोदकैश्चन्दनवारिभिश्च । आध्यायमानो व्यजनानिलैश्च उन्मील्य नेत्रद्वयमालुलोके ॥ ५४ ॥ ततो मुहूर्तात्प्रतिलब्धसंज्ञः शनैः समुत्थाय कुमारवर्यः । प्रभाषमाणो विगतश्रमस्सन् सुखं निषण्णः परिचारितस्तैः ॥ ५५ ॥ आश्चर्यमस्मान्न च विद्यतेऽन्यज्जोवो गतोऽस्य प्रतिसंनिवृत्तः । इति ब्रुवाणा वणिजां प्रधानाः सविस्मयाः संतुतुषुः समेताः ।। ५६ ।। समाप्त कर दिया है जब तुम पूर्ण स्वस्थ और सबल हो जाओगे, युवावस्थाके पूर्ण विकासको प्राप्त होओगे, अपने योग्य पदपर पहुँचोगे तथा तुम्हारा शासन चलेगा तब समस्त देशमें वध आदि पाप ही शान्त हो जायेंगे ।। ५१ ।। बिना किसी हीन इच्छा और विशेष प्रयत्न के बिना ही तुम मुझे अधम ऋणी ( जो उपकार का कोई प्रत्युपकार नहीं करता है ) बनाकर इस लोकसे चल गये हो, तुम अत्यन्त उदार तथा कुशल हो। तुमने मेरा अपार उपकार किया है, किन्तु मैं परिवर्तन में कुछ भी न कर सका, इस समय तुम्हारे प्राणहीन हो जानेपर मैं अभागा क्या करूँ ।। ५२ ।। हाय ! तुमने अपने उन्नत वंश, कुटुम्बी तथा देशके विषय में भो कभी एक शब्द न बताया था, जिन्हें जान करके किसी प्रकार वहाँ पहुँचकर उन्हें तुम्हारी वीरगाथा सुनाकर संतुष्ट होता । हा ! भद्र ! तुम अपने देश ही क्यों न लौट गये !' इत्यादि वाक्योंको कहकर सार्थपति अत्यन्त करुण विलाप करता था ।। ५३ ।। आहतोपचार इसी अन्तरालमें अनेक वणिक उसको हाथोंसे दबा रहे थे ठण्डे पानी के छींटे दे रहे थे, चन्दन-जल उसके मस्तक आदि प्रदेशों पर लगा रहे थे तथा धीरे-धीरे सुकुमारतापूर्वक पंखेसे हवा कर रहे थे। इन सबके द्वारा शरीरका श्रम दूर होनेसे उसमें शक्ति और चेतना जाग्रत हो रही थी फलतः उसने धीरेसे दोनों आँखें खोलकर अपने आस पास दृष्टि दौड़ायो थी ॥ ५४ ॥ इसके उपरान्त एक मुहूर्तं भर में हो वह पूर्ण चैतन्य हो गया था तब वह आर्यकुमार धीरेसे उठकर कुछ-कुछ बोला था। धीरे धीरे थकान दूर हो जानेपर वह सुखसे बैठ सका था तब उन सब वणिकोंने उसकी पूर्ण परिचर्या की थी ।। ५५ ।। इससे बढ़कर कोई दूसरा आश्चर्यमय कार्यं इस संसारमें हो ही नहीं सकता है कि इसके प्राण एकबार शरीर छोड़ For Private & Personal Use Only Jain Education International चतुर्दशः सर्गः [ २४७ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy