SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वराङ्ग चरितम् बीजादिव परं बीजं वर्धयत्कर्म कर्मणा । जीवो भ्रमति संसारे क्लेशाननुभवंश्चिरम् ॥ १०७ ॥ अथाष्टौ तानि कर्माणि अनादीनि महीपते । विनिपातसहस्राणि प्राणिनां प्रापयन्ति च ॥ १०८ ॥ एतान्येव नरके घोरे तिर्यङ्मानुषयोः सदा । देव दुर्गतिदुःखाब्धौ मज्जयन्ति पुनःपुनः ॥ १०९ ॥ तान्येव प्रियसंयोगं विप्रयोगं प्रियाज्जनात् । जाति मृत्यु जरां चैव कुर्वन्ति प्राणिनां सदा ॥ ११० ॥ दु:खबीजानि तान्येव तान्येवोग्राश्च शत्रवः । शोककर्तुं णि तान्येव तान्येव सुखहेतवः ॥ १११ ॥ परम्परा रॅहटकी घड़ियोंके समान आत्माको घेरता रहता है अथवा यों कहिये कि मथानीको डोरीके समान एक तरफसे खुलता है और दूसरी तरफसे बँध ( लिपट ) जाता है ॥ १०६ ॥ जिस प्रकार एक बीजसे दूसरे बीज उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार पूर्वोपार्जित कर्मके द्वारा उत्तरकालीन ( अगले ) कर्मों के बोझको बढ़ाता हुआ यह जीव संसारमें मारा-मारा फिरता है और बहुत समय पर्यन्त अनेक क्लेशोंको भोगता है ॥ १०७ ॥ हे राजन् ! ये ज्ञानावरणी आदि आठों कर्म इस जीवके पीछे अनादि ( जिसका प्रारम्भ नहीं खोजा जा सकता है ) कालसे चिपके हैं और इस जीवके एक दो नहीं हजारों पतनोंको करते आये हैं ।। १०८ ।। यही कर्म दारुण और भयंकर नरकोंमें जीवको पटकते हैं, ये ही तिर्यञ्च और मनुष्य गतियोंमें दौड़ाते हैं और ये ही [कभी-कभी स्वर्गं गतिमें बैठा देते हैं । यहां इनकी ही सामर्थ्य है जो जीवको पुनः पुनः दुखोंके समुद्रमें डुबा देते हैं ॥ १०९ ॥ प्रियजनोंकी सत्संगति की प्राप्ति ( विरोधी प्रकृतिके अप्रिय लोगोंकी कुसंगतिका भरना) तथा प्राणप्रियजनोंके समागमसे सदा के लिए वियुक्त होना, जन्म और मरण, यौवन और वृद्धावस्था जो जीवोंको प्राप्त होती है यह सब भी इन्हीं कमकी लीला है ।। ११० ।। Jain Education International ये कर्म ही सब दुःखोंके मूल बीज हैं, [प्राणियोंके उद्धत और निर्दय शत्रु [कर्ता है; तो ये ही हैं, इसी प्रकार सांसारिक सुखोंके प्रधान उत्पादक भी ये ही हैं ।। १११ ॥ For Private Personal Use Only कोई हैं, तो ये ही हैं, यदि कोई [ शोक - दुखका चतुर्थः सर्गः [ ८० ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy