________________
बराङ्ग चरितम्
PATHREATRESSIPA
भोगविघ्नकरा जीवा भोगहीना भवन्ति ते। नालं भोक्तुं सति द्रव्ये उपभोगविघातिनः ॥ १०२॥ वीर्यविघ्नकरा नित्यं वीर्यहीना भवाध्वसु । धर्मविघ्नकरा ये ते सर्वविघ्नकरा मताः ॥ १०३ ॥ अष्टानां कर्मणां राजन्फलमेतदुदाहृतम् ।। एतैविमुच्यते जीवः संसारे कर्मभिश्चिरम् ॥ १०४ ॥ बध्नात्यष्टविधं कर्म एकप्राणिविहिंसनात् । नानायोनिषु तेनात्मा दुःखान्याप्नोत्यनन्तशः ॥ १०५ ॥ एकेन मुच्यते जीवः कर्मणान्येन बध्यते। घटीयन्त्रस्य घटवद्दाहोऽस्मिन्मन्थरज्जुवत् ॥ १०६॥
HESHAHAHAHARASHTRA
अकारण हो अडंगा लगा देते हैं उनकी सम्पत्ति कमानेको इच्छा असफल ही रहती है ।। १०१॥
___ अपने-अपने पुण्यके फलस्वरूप भोगोंका रस लेनेवालोंके मार्गमें जो बाधक होते हैं वे स्वयं भी सब ही भोगोंसे वञ्चित रह जाते हैं। जिन्होंने दूसरोंके उपभोग भोगनेके मार्ग में रोड़े अटकाये हैं वे सम्पत्ति आदि साधनोंको पाकर भी उपभोगोंके आनन्दसे वञ्चित ही रह जाते हैं ।। १०२॥
दूसरोंकी शक्ति और वीर्यके विकास-मार्ग में जो काँटे बोते हैं वे भी इस संसारमें शक्तिहीन और अक्षम होते हैं। इसी प्रकार जो अन्य लोगोंके धर्माचरणमें विघ्नबाधाएं डालते हैं उन्हें तो दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य सबका ही अन्तराय मानना चाहिये ।। १०३॥
हे राजन् ! उक्त प्रकारसे क्रमशः आठों कर्मोंका स्वरूप, उनके बन्धके कारण और विशद परिणामको आपको समझाया है । क्योंकि इस संसारमें जीव इन आठों कर्मों के द्वारा ही सदा लुभाया जाता है और पथभ्रष्ट किया जाता है ।। १०४ ॥
एक साधारणसे जीवकी हिंसा कर देनेसे ही यह जोव आठों प्रकारके कर्मोंका बन्ध करता है। तथा यह सब उस बन्धका ही माहात्म्य है जो यह जीव नाना योनियोंमें अनेक प्रकारके दारुण अनन्त दुखोंको भरता है ॥ १०५॥
कर्म महिमा संसारचक्रमें ज्यों ही जीव किसी एक कर्मको पाशसे छूटता है त्यों ही दूसरेका फन्दा उसपर कस जाता है फलतः बन्ध १.[विमुह्यते ।
[
७९]
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org