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________________ बराङ्ग चरितम् चतुर्थः सर्गः मनोवाक्कायकुटिला विसंवादपरायणाः । बध्नन्त्यशुभनामानि दुर्वर्णादीनि देहिनः ॥ ९७ ॥ ऋजवो वाङ्मनःकायैरविसंवादतत्पराः। सौरूप्यादिविपाकानि बध्नन्ति शुभनामतः ॥ ९८ ।। ये जात्यादिमदोन्मत्ताः परनिन्दापरायणाः । नीचगोत्रं निबध्नन्ति जीवाः परमदारुणम् ॥ ९९॥ ज्ञानधर्माहतां भक्ताः परनिन्दाविवजिताः । उच्चैर्गोत्रं निबध्नन्ति जीवाः परमदुर्लभम् ॥ १०० ॥ दानविघ्नकरा ये ते निःस्वा जन्मसु जन्मसु । लाभविघ्नकराश्चापि निराशा धनलब्धिषु ॥ १०१॥ SAREERSataranaswadeRe उद्देश्यके ही ऐसे कार्य करते हैं जिनसे कर्मोकी निर्जरा हो सकती है ( अकाम निर्जरा ) संयमासंयममय ( देशचारित्र ) आचरण " करते हैं या जो कि सम्यक् दृष्टि सम्यकचारित्री होते हैं ।। ९६ ।। नामकर्म बन्ध जिन प्राणियोंकी मानसिक, वाचनिक तथा शारीरिक चेष्टाएं छल और कपटसे भरी रहती हैं, जिन्हें विरोध, मतभेद या सन्देह करने में ही आनन्द आता है वे प्राणी ही दुर्वर्ण अयशःकीति आदि बुरे नामकर्मका बन्ध करते हैं ॥ ९७ ॥ व जो कुछ मनसे सोचते हैं वही मुखसे बोलते हैं, वचनोंके अनुकूल ही चेष्टा करते हैं तथा जो कहते हैं उसे ही मनसे । सोचते हैं, विरोध, सन्देह वैमनस्यके बिल्कुल खिलाफ रहते हैं ऐसे ही जीव शुभ, सुस्वर आदि शुभनामकर्मकी प्रकृतियोंको बाँधते गोत्रकर्म बन्ध जिन प्राणियोंको अपनी जाति, कुल, शरीर, बल, ऋद्धि, ज्ञान, तप और पूजाका अभिमान या उन्माद हो जाता है, सर्वदा दूसरोंको निन्दा और दोषोद्घाटन में लीन रहते हैं. ऐसे ही प्राणी नीच-गोत्रका बन्ध करते हैं जिसका परिपाक अत्यन्त दुखदायी होता है ।। ९९ ।। अर्हन्त प्रभुके द्वारा प्राप्त सम्यक्ज्ञान तथा उन्हीं के द्वारा उपदिष्ट वीतराग धर्ममें जिनकी अट भक्ति होती है। दूसरेकी निन्दा तथा पैशुन्य आदिमें जो कोसों दूर रहते हैं, वे ही प्राणी उच्चगोत्र-कर्मका बन्ध करते हैं, जो कि इस संसारमें [७८) भरपूर प्रयन्न करनेपर भी कष्टसे ही प्राप्त होता है । १०० ।। अन्तराय बन्धकारण जो प्राणी दूसरोंके दान देने और पानेमें बाधक होते हैं वे भव-भवमें दरिद्र ही होते हैं। जो किसीको होते हुए लाभमें । a sSARTAINED For Private & Personal Use Only Jain Education interational www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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