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वराङ्ग
चतुर्थः
चरितम्
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सर्गः
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नवभिनॊकषायैस्तु स्वकर्मफलवतिभिः । आत्मा चरत्यनाचारं स तेन क्लेशमच्छति ॥ ९२॥ प्रतशीलगुणैः शून्या बह्वारम्भपरिग्रहाः। बध्नन्ति नरकायुस्ते मिथ्यामोहितदृष्टयः ॥ ९३ ॥ मायातिवञ्चनप्रायाः कूटमानतुलारताः। बध्नन्त्यायस्तिरश्चां ते रसभेदश्चकारिणः॥ ९४ ॥ शीलसंयमहीना ये मार्दवार्जवदानिनः । बघ्नन्ति मानुषायुस्ते प्रकृत्याल्पकषायिणः ॥ ९५ ॥ सरागसंयमोरकामसंयमासंयमवताः
सदृष्टिज्ञानचारित्रा बध्नन्त्यायुर्दिवौकसाम् ॥ ९६ ॥ अपने-अपने विशेष कर्मोके फलस्वरूप प्राप्त होनेवाली हास्यादि नोकषायोंके कारण यह जोव बड़े-बड़े अनाचार और अत्याचार करता है। परिणाम यह होता है कि आत्माकी संसारमें स्थिति क्लेशपूर्ण हो जाती है ।। ९२॥
नरकायुबन्ध कारण जिन लोगोंकी विवेकरूपी दृष्टिपर मिथ्यात्व मोहनीयका पर्दा पड़ गया है, जो अहिंसादि व्रत और शिक्षा तथा गुणवतमय शीलसे हीन हैं, साथ ही साथ संसार-कारण अत्यधिक आरम्भ और परिग्रह करते हैं वे नरकायुका बन्ध करते हैं ।। ९३ ॥
तिर्यञ्चायुका बन्ध जो अत्यन्त मायावी हैं, दूसरोंको सदा सर्वथा ठगते हैं, जिनके बाँट और तराजू झूठे हैं तथा जो एकरसमें दूसरे रसको मिला देते हैं जैसे दूधमें पानी, घीमें चर्बी आदि ऐसे ही लोग तिर्यंच आयुका बन्ध करते हैं ॥ ९४ ।।
मनुष्यायुका बन्ध जिनकी क्रोधादि कषाय स्वभावसे ही मन्द हैं, जो यद्यपि सामायिक आदि शील तथा कायक्लेश आदि इन्द्रिय संयमका पालन नहीं करते हैं तो भी दान देते हैं, व्यवहारमें सरल और कीमल हैं, ऐसे ही प्राणी मनुष्य आयुको प्राप्त करते हैं ।। ९५॥
देवायु बन्ध स्वर्गवासियोंकी आयुको वे ही पाते हैं जो आसक्ति या फलेच्छापूर्वक संयम पालते (सराग संयम ) हैं, जो बिना १. [रसभेदस्य कारिणः ], [ रसभेदप्रकारिणः], २. [ सरागसंयमाकाम°], ३. [°चारित्राद् ।।
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