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वर्षासु शीतानिलदुदिनासु घोराशनिस्फूर्जथुनादितासु' । दिवानिशं प्रक्षरदम्बुदासु ते वृक्षमूलेषु निषेदुरायः ॥ २८॥ स्थलेषु निर्जन्तुषु वीतरागा निषद्य ते स्त्रीपशुवजितेषु । संसारनिस्सारदुरन्ततां च विचिन्तयामासुरनेकशस्ते ॥ २९॥ बने पुनर्भीमतमेऽन्धकारे शिवादिवान्धध्वनिरौद्ररूपे । जरारुजामुत्युभयातिभीता निद्रावशं रात्रिषु नैव जग्मुः ॥३०॥ धाराभिधौताङ्गमला: सुलेश्याः खद्योतमालारचितात्ममात्नाः । विद्युल्लतावेष्टनभूषिताङ्गाः प्रज्ञाङ्गरागात्युपभोगशक्ताः ॥ ३१॥
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-O-SHAHATHemamleeyesires
वर्षाऋतु-तप वर्षाऋतुमें जबकि सतत स्थायी मेघोंके कारण दुर्दिन ही रहते थे, शीत प्रभञ्जन बहता था, भयानक बिजली चमकती थी, भीषण गर्जना होती रहती थी, एक क्षणको भी बिना रुके दिन-रात पानी ही बरसता रहता था, उस कष्टकर समयमें भी ये मुनिवर किसी वृक्षके नीचे बैठकर ऐसे ध्यानस्थ हो जाते थे मानो प्रकृतिमें कोई विपर्यास ही नहीं हुआ है ।। २८ ।।
इन वीतराग मुनियोंके लिए कोई भी स्थान जो कि सूक्ष्मकीट जीव-जन्तुओं तथा स्त्रियोंसे शून्य होता था तथा जहाँ पर पशओंका उपद्रव न होता था वहीं पर वे बैठ जाते थे । और शान्त चित्तसे एक दो बार ही नहीं अनेक बार संसारकी सारहीनतासे प्रारम्भ करके उसके दुखदायी परिणामों पर्यन्त गम्भीरतापूर्वक सोचते थे ।। २९ ॥
वे भीषणसे भीषण वनके भीतर घुस जाते थे, जहाँ पर दिनको भी रात्रिसे अधिक अन्धकार रहता था। रात्रिके समय वहाँपर सियार तथा दिनको न देखनेवाले उल्लू कर्णकटु अशुभ ध्वनि करते थे । किन्तु मुनिवरोंका उधर ध्यान भी न जाता था। संसारमें अवश्यम्भावी जन्म, जरा और मृत्युके भयसे आकुल होकर वे रात भर शुभ ध्यान करते थे और एक क्षणके लिए भी न सोते थे ।। ३० ॥
दिनरात बरसने वाली मूसलाधार वृष्टिके द्वारा ही उनके शरीरका मैल धुल जाता था और आत्माके समान शरीर भी निर्मल हो जाता था। रात भर चमकनेवाली जगनुओंके प्रकाशसे ही उनकी प्रकाशमालाका काम चल जाता था। बिजलीके HEN प्रकाशरूपी वस्त्रसे ही उनका शरीर वर्षाकी रातोंमें लपट जाता था तथा ज्ञानाभ्यासरूपो अंगराग (उबटन ) के उपयोगमें ही में वे अत्यन्त आसक्त थे ।। ३१ ।।
१. म 'नादिकासु।
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