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वराङ्ग चरितम्
हेमन्तकाले धृतिबद्धकक्षा दिगम्बरा ह्यभ्रवकाशयोगाः । हिमोत्करोन्मिश्रितशीतवायुं
अस्पर्शयोगा मलदिग्धगात्राः
उच्छ्वासनिःश्वास निमेषलक्ष्याः ' संत स्थिरे स्थाणुरिवाप्रकम्प्याः ॥ ३३ ॥ भूतैः प्रभूतैः सपिपाससंधैः सडाकिनीभिः पिशिताशनीभिः । घोरैः पुनर्भीमरवानुकारैस्ते निश्चला तस्थुरमा इमशाने ॥ ३४ ॥ अस्नानभूरिव्रतयोगभाराः स्वेदाङ्गमासक्तरजःप्रलिप्ताः । निदाघसूर्याभिमुखा नृसिंहा व्युत्सृष्टगात्रा मुनयोऽभितस्थुः ॥ ३५ ॥
वे
जब हेमन्त ऋतु प्रारम्भ हो जाती थी तब ही दिगम्बर थे, इसपर भी वे खुले आकाशके नीचे ही झकोरे लेती थी तथा हिम (बर्फ) को फेंकती थी,
प्रसेहिरेऽत्यर्थमपारधैर्याः ॥ ३२ ॥ प्रसारणाकुञ्चनकम्पहीनाः ।
शीतकाल तप
अपनी धारण शक्तिरूपो धोतीकी कांछ बांध लेते थे । एक तो वे यों अवकाश योग लगाकर बैठ जाते थे। उस समय अत्यन्त शीतल पवन किन्तु इस सबको वे परम शान्तिके साथ सहते थे, क्योंकि उनका धैर्यं
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अपार था ॥ ३२ ॥
जब वे अस्पर्श ( शरीर निरपेक्ष अखण्ड समाधि ) योग लगाते थे तब उनका सारा शरीर धूल मिट्टी पसीने आदिसे ढक जाता था । उस समय न तो हाथ पैर आदि किसी भो अंगको फैलाते थे और न सिकोड़ते ही थे । कँपने आदिके लिए तो काश ही नहीं था । उस समय वे जीवित हैं इसका पता केवल इसी बात से लगता था कि उनकी श्वासोच्छ्वास देखी जाती थी, अन्यथा वे वृक्षके ठुटकी भांति अचल होकर ध्यान मग्न रहते थे ।। ३३ ।।
भूतों के लिए भी महाभूतों के समान भीषण भूतों पिशाचोंके समूह द्वारा वे डराये जाते थे । मांस मज्जाको खानेके लिए अभ्यस्त डरावनी डंकिनियाँ उन्हें धमकाती थीं। ये सब बड़े दारुण थे, आकार देखते ही भयसे रोमाञ्च हो आता था तथा इनकी कर्कश ध्वनि सुनकर रक्तकी गति रुकने लगती थी, किन्तु वरांग आदि सब ही मुनिराज ऐसे उपसर्गं उपस्थित होनेपर भी श्मशान में अचल समाधि लगाये बैठे रहते थे ।। ३४ ॥
ग्रीष्मतप
जब ग्रीष्म ऋतु आती थी तब वे मुनिवर अनेक कठोर व्रतोंके साथ-साथ अस्नान महायोगको धारण करते थे ग्रीष्मके तापके कारण पूरे शरीर से पसीना बहता था जिसपर उड़ती हुई धूल बैठ जाती थी और पूरी देह धूलसे लिप जाती थी । किन्तु वे मनुष्य-सिंह शरीरकी ममता को छोड़कर जेठके मध्याह्नके सूर्य की तरफ मुख करके ध्यान करते थे ।। ३५ ।।
१. क लक्ष्म्या । २. [ निश्चलं ] ।
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त्रिंश:
सर्गः
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