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________________ त्रिंशः यथा मदान्धाः करिणः प्रयोगैरुपायवन्तो वशमानयन्ति । तथेन्द्रियेभान् कुलजातिदृप्तान्' ज्ञानाङ्कशेनात्मवशं प्रणिन्युः ॥ २४ ॥ यथा पुरात्यन्तरदुष्टवर्गानपास्य राज्यं स्वमुखं प्रणिन्युः। तथैव रागादिरिपून्विजित्य सुखं निषण्णो मुनितामुपेत्य ॥ २५ ॥ शून्यालये देवगृहे श्मशाने महाटवीनां गिरिगह्वरेषु । उद्यानदेशे दुमकोटरे वा निवास आसीदृषिसत्तमानाम् ॥ २६ ॥ रात्रिचरा भीमरवाः शकुन्ताः शार्दूलसिंहद्विपजम्बुकाः। यत्राकुला भीमभुजंगमाश्च तत्रास वासो यतिपुजवानाम् ॥ २७॥ जाते हैं। राजर्षि विशेष ज्ञानी थे इनके स्वभावसे परिचित थे। फलतः सम्यक्चारित्ररूपी पुष्ट रस्सीसे बाँधकर उन्होंने इन्द्रियोंरूपी घोड़ोंकी सारी मस्ती उतार दी थी ॥ २३ ।। . जो पुरुष हाथियोंके पालतू बनानेकी कलामें कुशल हैं तथा एकके बाद एक युक्ति लगाते जाते हैं वे मदोन्मत्तवन्य (जंगली) गजोंको भी बड़ी सरलतासे वशमें कर लेते हैं। इन्द्रियों रूपी जंगली हाथी अपनो उदण्ड परम्परा (कूल ) जन्मसे ही अत्यन्त अहंकारी और विद्रोही होते हैं किन्तु सदा प्रयत्नशील राजर्षियोंने इन्हें भी ज्ञानरूपी अंकुशके संकेतपर नचा कर अपने वशमें कर लिया था ॥ २४ ।। सफल साधक वरांग मुनि जब राजा थे उस समय उन्होंने अपने शत्रुओंका एकदम सफाया कर दिया था तथा राज्यमें मर्यादाका लोप करने वाले दुष्टोंका नाम तक न सुनायी देता था। परिणाम यह हआ था कि प्रजा अत्यन्त सुखी और सम्पन्न थी। जब मुनिपदको धारण किया था तब भी उनकी वही अवस्था थी, क्योंकि राग, द्वेष, आदि शत्रुओंका समूल नाश करके वे सुखसे समाधि लगाते थे ।। २५ ॥ विविध योग ये ऋषिवर कभी शून्य भवनमें ठहर जाते थे तो दूसरे समय किसी देवालयमें ध्यान करते थे एक दिन श्मशानमें सामायिक लीन होते थे तो दूसरे ही दिन अत्यन्त सघन दुर्गम वनोंके पर्वतोंकी भीषण गुफाओंमें ध्यानारूढ़ हो जाते थे। यदि । कभी सुन्दर उद्यानमें समाधिस्थ होनेका अवसर आता था तो वे प्रसन्न न होते थे इसी प्रकार वृक्षके खोखलेमें बैठे रहनेमें भी उन्हें असुविधा न होती थी ।। २६ ॥ जिस दुर्गम स्थानपर सिंह, केशरी, हाथी, रीछ, जम्बुक, घातक गीध आदि पक्षी, भीषण विषैले सर्प तथा निशाचर। रहते थे, जो स्थान इनके कर्णकटु डरावने रोरसे व्याप्त रहता था उसी भयंकर स्थान पर हमारे श्रेष्ठ तपस्वी वरांग आदि मुनिराज वास करते थे।। २७ ।। १.क येभाः""दृप्ताः । २. [पुरात्यन्तिकदुष्ट° ] । Jain Education interational [६१३) For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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