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नेसर्यमास्थाय: शुभप्रयोगा महर्षयो मन्दरसारधैर्याः । चकम्पिरे नैव परोषहेभ्यः प्रभज्जनस्तरचला इवात्र ॥२०॥ यथाजिभूमावरिसैन्यमुग्रं पुरा ममर्द स्वपराक्रमेण । परोषहारीविषयांस्त्रिदण्डांस्तथा ममर्दुर्यतयो जिताशाः ॥ २१॥ अर्हद्वचःस्तम्भमुपागमय्य बधद्वा तपोयोगमयैश्च पाशैः । मनोगजान्मानमदागण्डान् ज्ञानाङ्कशैस्ते शमयांबभूवुः ॥ २२ ॥ दुष्टानिवाश्वानपथप्रपन्नान्पञ्चेन्द्रियाश्वान्विषयानुदारान् । संयम्य सम्यग्वररज्जुबन्धेर्महाधियस्ते स्ववशं प्रचक्रुः ॥ २३ ॥
मानामनियाबासा
इन सब ही महर्षियोंकी साधना शक्ति सुमेरुगिरिके समान अडिग और अक्षय थी। शुभ बन्धके कारण ध्यान, आसन स्वाध्याय आदिमें ही इनका पूरा समय बीतता था। जिस समय वे आतप आदि योग (निसर्ग) लगाकर ध्यानारूढ़ हो जाते थे उस समय क्षुधा, तृषा आदि परीषह उन्हें थोड़ा-सा भी न डिगा सकते थे। ध्यानस्थ मुनिबरोंको देखकर उन पर्वत शिखरोका स्मरण हो आता था जिनपर प्रभञ्जनके थपेड़े कोई भी प्रभाव नहीं डाल पाते हैं ।। २० ।।
तपसर जब ये सब राजर्षि गृहस्थ थे तब इन्होंने युद्ध स्थल में जाकर अपने प्रचण्ड पराक्रमके द्वारा शत्रुओंकी असंख्य और वीर सेनाको देखते-देखते मसल दिया था। जब मुनिदीक्षा ग्रहण की तब भी आशापाशको छिन्न-भिन्न करके इन्होंने उसी उत्साह तथा लगनके साथ बाईस परोपह, इन्द्रियोंके विषय, तीनों दण्ड आदि शत्रुओंको भी शीघ्रतासे पददलित कर दिया था ।। २१ ॥
मन मतंगज उनके उच्छृखल मन मदोन्मत्त हाथो थे । अहंकार तथा प्रभुताका उन्माद मनरूपी हाथोके मदजलसे गीले उन्नत गण्डस्थल थे किन्तु इन मुनियोंने वीतराग प्रभुके उपदेशरूपी पुष्ट तथा प्रबल खम्भेको पाकर ऐसे उदण्ड हाथियोंको बारह प्रकारके तप तथा तीनों योगों रूपी प्रबल रस्सीको पाशसे फंसा कर उससे बांध दिया था। तथा ज्ञानके प्रखर अंकुशको मारसे उसका समस्त उन्माद दूर कर दिया था ॥ २२ ।।
इन्द्रियाश्व पाँचों इन्द्रियाँ कुशिक्षित, कुलक्षण तथा दुष्ट घोड़ोंके समान है, हजार रोकनेपर भी ये कुपथपर ही चलते हैं, तथा स्पर्श, रस, गंध, वर्ण तथा शब्द ये पाँचों विषय तो इतने अधिक आकर्षक हैं कि इन्हें देखते ही इन्द्रिय-अश्व बिल्कुल बेकाबू हो १. [ वैराग्यमास्थाय]। २. क ममद्दुः । ३. क ज्ञानांशुक्र ।
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