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त्रिशः
सगं:
मानो महाशैल इवातितुङ्गः स मावेनाप्रतिमेन जिग्ये । तथैव माया कुटिलस्वभावा जितेन्द्रियश्चिव जितार्जवेन ॥१६॥ लब्धास्पदः सर्ज इव प्रवृद्धः शाखोपशाखाप्रतिमानमूर्तिः । उन्मोलितो लोभकषायवृक्षः संतोषधत्या क्रियविद्धिराद्यैः॥ १७॥ व्रणाःप्रशल्या इव दुश्चिकित्स्या मिथ्यात्वमायासनिदानशल्याः । विमक्तिमार्गाभिरतैरुदाविजितास्तै ऋषिभिविशेषात ॥ १८॥ जिनेश्वराचार्यबहुश्रुतेषु संघ च धर्मे च जिनालये च । सम्यक्त्वचारित्रतपस्सु नित्यं भक्ति प्रचक्रूस्तनुरागमोहाः ॥ १९॥
मान कषायका अन्त पाना भी दुष्कर है क्योंकि वह सुमेरुके समान उन्नत है, तो भी साधुओंने परिपूर्ण मार्दव (भाव तथा क्रियाकी कोमलता) के द्वारा इसके भी छक्के छुड़ा दिये थे । माया कषायको तो समझना हो कठिन है क्योंकि वह अत्यन्त कुटिल है किन्तु पाँचों इन्द्रियोंके जेता तपस्वियोंने अपनो तीव्र ऋजुता ( आर्जव ) के द्वारा इसे भी सीधा कर दिया था ।। १६ ॥
लोभ कषायका तो कहना ही क्या है मनुष्य के हृदयरूपी स्थानको पाकर लोभतरु सर्ज ( शालवृक्ष ) के समान हर दिशार में फैल जाता है, उसकी शाखाएँ तथा उपशाखाएं इतनी अधिक बढ़ती हैं कि उसके बृहत् आकारकी कल्पना भी दुष्कर हो जाती
है। किन्तु वरांग आदि सब हो मुनिलोग अपने आचरणमें प्रवीण आर्यपुरुष थे फलतः उन्होंने संतोष और धृतिरूपी कुठारोंकी मारसे उसको (लोभतरुको) धराशायी ही नहीं किया था अपितु जड़ तकको उखाड़ कर फेंक दिया था ॥ १७ ॥
शल्यत्रयोन्मलन जो घाव शल्य-क्रिया ( हथियारसे चीड़फाड़ ) से भी नहीं सम्हलते हैं उनकी चिकित्सा करना अत्यन्त कठिन होता है । आत्माके मिथ्यात्व, माया तथा निदान इन तीनों शल्यों रूपी घावोंको भी इसो जातिका समझिये। किन्तु मुनिवर वरांग तथा उनके समस्त साथियोंको मुक्ति में आस्था और प्रेम था तथा उसके मार्ग पर चलनेका उत्साह था । यही कारण था कि उन विशाल तपस्वियोंने इन शल्योंको देखते-देखते निकाल फेंका था ।। १८ ॥
इस साधनाके द्वारा नूतन मुनियोंका सामान्य मोह तथा विशेषकर राग क्षीण हो गया था। वे एक हजार आठ जिनेन्द्र । देव, आचार्यों, श्रुतके विशेषज्ञ उपाध्याय, चतुर्विध संघ, धर्म, धर्मायतन, जिनालयकी यथायोग्य भक्ति करते थे। सम्यक्दर्शन,
चारित्र तथा तपकी सिद्धिके लिए सदा प्रयत्नशील रहते थे ॥ १९ ॥ । १. [ उन्मलितो]। २. [ श्रुतविद्भिरायः ] । ३. [ सशल्या ] ।
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