SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 643
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वराङ्ग चरितम् ते भव्यस्वा विदितार्थतत्वा जन्मान्तरे भावितमुक्तिमार्गाः । अनन्तवीर्याः श्रमणत्वमाप्ताः शिशिक्षिरे तच्च सुशिक्षितव्यम् ॥ १२ ॥ वराङ्गराजेन सह प्रयाताः समाहिताः क्षत्रियसंयतेन्द्राः । वैराग्यनिर्वेदपरायणास्ते प्रारेभिरे कर्मरिपुं विजेतुम् ॥ १३ ॥ ममत्वदेहप्रतिकारहीना न हि क्वचित्ते प्रतिबद्धरागाः । त्यक्तप्रमादा निरवद्यभावा समा बभूवुः प्रजने जने वा ॥ १४ ॥ त्रैलोक्यमध्येकमुहूर्त मात्रादुदीरितो नाशयितुं समर्थः । कोधकषायमल्लः क्षमाबलेनाप्रतिमैनिरस्तः ॥ १५ ॥ महाबलः वरांगराज, आदि मुनि तथा आर्यिकाएं यद्यपि नूतन दीक्षित थे तो भी इन सबने तत्वों तथा उनके रहस्यको भलीभांति समझ लिया था। वे सबके सब भव्यजीव थे। उन्होंने अपने पूर्व जन्मों में मुक्ति मार्गके साधन ज्ञान, चारित्र आदिका अभ्यास किया था। उनकी मानसिक तथा कायिक शक्तियाँ भी विशाल थीं, इसीलिए वे थोड़े ही समय में सकल श्रमण हो सके थे । तथा आचार्यश्री के चरणों में बैठकर वह सब शिक्षाएं ग्रहण कर सके थे जो कि मनुष्य जीवनका चरम लक्ष्य है ॥ १२ ॥ वर्द्धमान तप क्षत्रिय मुनि लोग साधना में सफल होनेके लिए पूर्ण प्रयत्न करते थे । उनके आचरण तथा भावोंकी धारा वैराग्य और निर्वेद रूपसे ही बह रही तथा पहिले सांसारिक प्रतिद्वन्दियोंको जीतनेवाले वे सब अब कर्मरूपी मुनि वरांगके साथ तपस्यामें लीन वे सब ही आलस्यको छोड़कर साधना में सदा ही तत्पर रहते थे। थी। इन योग्यताओंने उन्हें श्रेष्ठ साधु बना दिया था शत्रुओं पर टूट पड़े थे || १३ ॥ ममत्व उनको छोड़ चुका था, शरीरके स्नान आदि संस्कार करनेकी उन्हें सुधि ही न थी । ऐसा कोई पदार्थ इस धरणीपर न था जिसपर उनको थोड़ा-सा भी राग होता। प्रमाद उनसे दूर भाग गया था। भावोंपर मलिनताकी छांह तक न पड़ती थी । उस समय उन्हें एकान्त वन तथा जनाकुल सभामें कोई अन्तर हो न मालूम देता था ॥ १४ ॥ कषाय पराभव केवल क्रोध कषाय ही इतनी अधिक शक्तिशाली तथा भयंकर है कि यदि वह अनुकूल परिस्थितियाँ पाकर किसी संयोगवश पूर्णता की शिखर पर पहुँच जाय, तो केवल एक मुहूर्त में हो वह तीनों लोकोंको मटियामेट कर सकता है। इस अनुपम मल्लको मुनियोंने क्षमाकी शक्तिसे अनायास ही पछाड़ दिया था ।। १५ ।। For Private & Personal Use Only Jain Education International त्रिंश: सर्गः [ ६१० ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy