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वराङ्ग चरितम्
अथैव मुक्तानि तपांसि तासां तपस्विनीनां वरशीलभासाम् । वराङ्गराजषितपोविधानं संक्षेपतस्तत्पृथगेव वक्ष्ये ॥ १६ ॥ विहाय राज्यश्रियमद्भुतश्रीस्तपः श्रियं संश्रयितुं कृताशः । निस्संगिनों तां प्रतिपद्य दीक्षां जग्राह धीरः स महाव्रतानि ॥ १७ ॥ आचारमादौ समधीत्य धीमान्प्रकीर्णकाध्याय मनेकभेदम् । अङ्गानि पूर्वांश्च यथानुपूर्व्यामल्पैर होभिः सममध्यगीष्ट ॥ १८ ॥ विधूय संकल्परतिप्रसंग जिनेन्द्रवाक्याषिगतार्थतत्त्वः । नानाविधानं प्रतिगृह्य योगं तपश्चकारोग्रतपा महात्मा ॥ १९ ॥
इस विधि से उन तपस्विनियोंके दुर्द्धर तपोंका वर्णन किया है जिनके तपसे क्लिष्ट शरीरपर परिपूर्ण शीलकी अद्भुत ज्योति थी । इसके उपरान्त राजर्षि वरांगकी तप विधि के विषय में संक्षिप्त रूपसे कुछ कहते हैं ।। १६ ।।
हम देख चुके हैं कि तपश्रीको वरण करनेकी अदम्य आशाके कारण ही वरांगराजने विशाल राज्य लक्ष्मीसे सम्बन्ध तोड़ दिया था, क्योंकि उनके आन्तरिक और बाह्य गुणोंकी श्री ( शोभा ) हो उस राज्यश्रीसे अधिक चारु थी । स्वभावसे ही धीर वीर वरांगराजने जब निर्ग्रन्थ दीक्षाको धारण किया था उसी क्षणसे उन्होंने पाँचों महाव्रतोंका पालन प्रारम्भ कर दिया था ।। १७ ।।
वरांग ऋषिका तप
महा मतिमान् मुनि वरांगने सबसे पहिले पूर्ण विस्तारपूर्वक आचारांगका अध्ययन किया था। इसके उपरान्त अपने अनेक भेद तथा प्रभेदयुक्त प्रकीर्णक ग्रन्थोंका अध्ययन पूर्वक मनन किया था । इसे भी समाप्त करके शेष अंगों तथा दृष्टिवादके चौदह पूर्वी आदिका क्रमशः अध्ययन किया था। आश्चर्यकी बात तो यही थी कि तुलनात्मक दृष्टिसे उन्हें इन सबके अध्ययनमें बहुत ही थोड़ा समय लगा था ॥ १८ ॥
समस्त संकल्प विकल्पों तथा पूर्वमुक्त रतिके प्रसंगोंकी पापमय स्मृतियोंको उन्होंने हृदय पट परसे सदा के लिए पोंछ दिया था । भगवान् अर्हन्त केवलीके उपदेशके अनुसार ही तत्त्वोंके साक्षात्कार में वे सदा लीन रहते थे । नाना प्रकार के बिविध आतापन आदि योगोंको लगाकर महात्मा वरांग उग्रसे उग्र तपस्या कर रहे थे ।। १९ ।।
१. म वर्मा
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RAJA
एकत्रिंशः
सर्गः
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