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________________ बराङ्ग चरितम् एकत्रिंशः सज्ज्ञानमत्तद्विरदाधिरूढो दयातपत्रोत्तमपट्टचिह्नः। सद्धचानचापेरितशीलबाणैविव्याध मोहारिमवार्यधैर्यः॥२०॥ चारित्रजात्यश्वमथाधिरूढः स धर्मवर्मावृतगात्रभूषः । विज्ञानकुन्तेन हि कर्मशत्रु निपातयामास यतिविभिद्य ॥ २१ ॥ पञ्चेन्द्रियैरप्रतिलब्धवीर्य रागानिलप्रेरितधूमजालम् । 'संकल्प्यसंवर्षितकामवह्नि ज्ञानाम्बुकुम्भैः शमयांबभूव ॥ २२ ॥ सम्यक्त्वतुङ्गवतनेमिबद्धं शीलोपलोत्तेजि ततीक्ष्णधारम् । "तपोरनग्रं वरधर्मचक्रं जथान संगृह्य हि कामशत्रुम् ॥ २३॥ सर्गः HAPPAWAAIPADMAATREATIPATPATRAPALPAPARDASTANIAw तपराज्य राजर्षि वरांग सम्यकज्ञान रूपी हाथीपर आरूढ़ थे। दया, दम धर्मरूपी निर्मल तथा धवल छत्र और राजपट्ट उनके तपमय राज्यको घोषित करते थे। तथा शुद्ध धर्म तथा शुक्लध्यानरूपी प्रबल धनुषको उठाकर उसके द्वारा वे शीलरूपी प्रखर वाणोंकी वर्षा करके अपने महाशत्रु मोहके अंग-अंगको भेद रहे थे ॥ २० ॥ इस आध्यात्मिक युद्ध में भी उनका धैर्य अलौकिक और असह्य था। हाथियोंकी श्रेष्ठ जातिमें उत्पन्न सम्यक्चारित्ररूपी रणकुशल हाथीपर आरूढ़ होकर उन्होंने आठों कर्मोरूपी भव-भवके शत्रुओंसे युद्ध छेड़ दिया था। इस युद्ध में सत्य जैनधर्मका पालन ही उनका कवच था, सम्यकज्ञान ही तीक्ष्ण कुन्त ( भाला ) था, जिसके सटीक आघातोंसे उन्होंने देखते-देखते ही कर्मशत्रुको धराशायी कर दिया था ।। २१ ।। पाँचों इन्द्रियोंरूपी द्वारोंसे वीर्यको ग्रहण करनेवाली, प्रेमरूपी प्रबल पवनके झकोरोंकी मारसे कर्तव्य विमुखता आदि धुएंके बादलोंसे युक्त तथा काम भोग सम्बन्धी कल्पनाओंरूपी उद्दीपकोंके पड़ते ही भभकनेवाली कामदेवरूपी ज्वालाको राजर्षि वरांगने सम्यक्ज्ञानरूपी बड़े-बड़े जलपूर्ण कुम्भोंसे क्षण भरमें ही बुझा दिया था ॥ २२॥ धर्मचक्र निर्ग्रन्थ तपरूपी रणमें सद्धर्म चक्रके समान था । निर्दोष तथा अष्टांगयुक्त सम्यक्दर्शन तथा अन्य महाव्रत आदि नेमिके समान थे जिसपर धर्मरूपी चक्र कसा गया था। शील उस पाषाण शिलाके समान थे जिसपर घिस कर उक्त चक्रकी धारको तीक्ष्ण किया गया था। इसी भीषण चक्रको उठाकर राजर्षिने कामवासनारूपी शत्रुके मस्तकको छेद दिया था ॥ २३ ॥ १. [ संकल्प। २. क पापर्वाह्न। ३. म शीलोपलात्तेजित। ४. [ तपोरणोग्रं] । RELATIOCantIREचामान्यमान्म [६३१] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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