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________________ एकत्रिंशः उपोष्य पचत्रिषडष्टरात्रं पक्षश्च मासानपि षट्चतुष्कान । तपःकृशीभूतशरीसंस्था आहारमाजहुरथाल्पमल्पम् ॥ १२ ॥ तपोऽग्निनिर्दग्धविवर्णदेहा व्रतोपवासैरकृशाः कृशाङ्गायः। विशीर्णवस्त्रादतगात्रयष्टयस्ताः काष्ठमात्रप्रतिमा बभूवुः ॥ १३ ॥ पूरे बनेऽरातिजने जने वा मानापमानादिषु तुल्यभावाः । त्यक्तात्मसंगा निरवद्यचेष्टा धर्मानुरागा वसुधा विजहुः ॥ १४ ॥ यथा प्रसूता महतां कुलेषु यथैव वासन् भवि राजपल्यः । यथैव विज्ञानपथं प्रपन्नास्तथैव रशेप्तुः सुतपांसि साध्व्यः ॥ १५॥ randuDASIRTHEIRSTRORIALAचारचाया उपवासावि व्रत वे तीन दिन, पांच दिन, छह दिन, आठ दिन तथा पक्षों पर्यन्त लगातार उपवास करती थीं। कभी कभी महीनों, चार और छह माह भी उपवास करते बीत जाते थे, इस कठोर तपस्यासे उनके सुकुमार शरीर अत्यन्त कृश हो जाते थे, अतएव व्रतके अन्तमें वे बहुत थोड़ा आहार लेकर पारणा करती थीं ।। १२ ।। चिरकाल पर्यन्त तपरूपी अग्निकी लपटोंसे झुलसते रहनेके कारण उनके सुन्दर शरीर विवर्ण हो गये थे। स्वभावसे । ही उनकी देह कृश थी, उसपर भी लम्बे-लम्बे व्रत तथा उपवास, फलतः अत्यन्त कृश हो गयी थीं। उनकी सुकुमार देह चिथड़े-4 चिथड़े साड़ियोंसे लिपटी हुई थीं। इन सब कारणोंसे वे काठसे बनायी गयी पुतलियां सी मालूम देती थीं ॥ १३ ॥ समताभाव जनाकीर्ण नगर तथा जनशन्य बनमें उनके लिए कोई भेद न था, शत्रु और मित्रमें कोई पक्षपात न था, मान और अपमान दोनोंमें ही उनके एकसे भाव रहते थे। उन्हें अपने देह और आत्माका थोड़ा सा भी मोह न था। उनका प्रत्येक कार्य दोषरहित तथा शुभ होता था ॥ १४ ॥ वे धर्मके अनुरागसे प्रेरित होकर देशोंमें विहार करती थीं। जिस पूर्वपुण्यकी योग्यताके बलपर वे लोकपूज्य उत्तम कुलोंमें [६२९] उत्पन्न हुई थी और उसीके अनुरूप वे युवती होनेपर पृथ्वीपालक सम्राटकी प्राणाधिका हुई थीं। १५ ॥ १. [ पक्षांश्च ]। २. [ तेपुः]। ३. म साध्यः । www.jainelibrary.org STERIORDERAGELAGIRIRPURSUIRGika Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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