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________________ बराज एकत्रिंशः - सर्गः चरितम् महाबलानिन्द्रियकुञ्जरांस्तान् दर्पोच्छितागर्वमशावलिप्तान् । वशं प्रपन्नान्विवशं प्रणिन्युर्ववयशैः क्षान्तिशिलानिशातैः ॥८॥ अनर्थसंपादनशक्तिमान्या मनोमहादण्डधरो महात्मा । दूरंगमः प्रेरयितेन्द्रियाणां ताभिजितो मोहन पाग्रयायो ॥९॥ वाक्कायचित्ते प्रणिधेः प्रयोगं क्षणेऽपि पापासवहेतुभूतम् । अनर्थकं तत्त्रिविधं गुणिन्यो नोचुन चुकुर्न हि संस्मरंश्च ॥१०॥ गणाग्रभूषाः पृथुशीलभारा विच्छिन्नकामाकुरपुष्पबीजाः । स्वशक्तितः संपरिगृह्य योगं तनूनि ताः कर्मरजांसि चक्रुः ॥ ११ ॥ HARPATAARAMPATRITTENa । नायकके सम, अपितु पांचों OHAHESHARMATHEMARATHI पाँचों इन्द्रियां तथा नोइन्द्री (मन ) उन मदोन्मत्त हाथियोंके सदृश हैं जिनकी शक्तिकी सीमा नहीं हैं । ये विषयोंकी अभिलाषारूपी दर्पमें चूर होकर विद्रोही हो जाते हैं यौवनके मदसे उन्मत्त होकर अनर्थ करनेपर तुल जाते हैं। इन्हें भी रानियोंने । अपने संयत गृहस्थ जीवनमें भी उच्छृखल नहीं होने दिया था और अब दीक्षित अवस्थामें तो शान्तिरूपी शिलापर तीक्ष्ण किये गये सुमतिरूपी प्रखर अंकुशकी मारसे इनकी सारी मस्ती ही उतार दी थी॥ ८ ॥ मनस्विनी अब ही हुई मनुष्यका अनियंत्रित मन ही संसारके समस्त अनर्थोंको जन्म देता है। वह महान् सेना नायकके समान है जिसके नायकत्वमें विषय भोगोंकी निश्चित विजय होती है। वह महात्मा स्वयं ही दुर-दूर तक छापे नहीं मारता है, अपितु पांचों इन्द्रियोंको भी कुमार्गपर दौड़ता है। विश्वविजयी महाराज मोहके इस प्रधान सेनापतिको भी उन रानियोंने पराजित कर दिया था ।। ९॥ अपने मन, वचन तथा कायका अनुचित प्रयोग वे एक क्षण भी न करतो थों, क्योंकि इनके प्रयोगका अवश्यंभावी फल पापकर्मोका आस्रव होता है। वे गुणवती देवियां भलोभांति जानती थीं कि वैसा प्रयोग त्याज्य है, अतएव भूलसे भी वे न तो। व्यर्थ विषयोंपर विचार करती थीं, न अनावश्यक शब्द ही बोलती थीं और न निष्फल कार्य ही करती थीं ।। १० ।। उन्होंने सांगोपांग शीलको धारण किया था, कामरूपी विषवृक्षके अंकूर तकको तपकी अग्निमें झोंक दिया था। अतएव अपनी सफल साधनाके कारण वे अपने गण ( आर्यिका संघ ) की भूषण हो गयी थीं। वे अपनी शक्तिके अनुसार आतप आदि योग लगाकर पूर्व जन्मोंमें बाँधे गये कौके मैलको कम करती थीं ॥ ११ ॥ १.क°निशान्त्यः। २.[°शक्तिमान्यो]। ३. क संस्मरश्च, [ संस्मरुश्च ] । [६२८) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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