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________________ द्वाविंशः बराङ्ग ततो वसन्ते वरुणातिकान्ते फुल्लनुमात्तंभ्रमरोपगीते । तमिन्दुवक्त्राः कुसुमावतंसाः कान्ता बनान्ते रमयांबभूवुः ॥ १२॥ मयूरमातङ्गमदावहायां विरूढबालाङ्करशाड्वलायाम् । प्रिदावृतः प्रावृषि नीरदाभान्वभ्राम राजा घरणीधरांस्तान् ॥ १३ ॥ वर्षासु भीमाशनिर्गाजतासु विद्युल्लतानद्धबलाहकासु। खद्योतनात्माकुलितपक्षपासु प्रासादमालासु दिनान्यनैषीत् ॥१४॥ अहीनपञ्चेन्द्रियकल्पगावो यदृच्छयाभ्यागतशक्रकल्पः । तत्कालयोग्यान्विविधप्रकारानिष्टः समेतोऽनुबभूव भोगान् ।। १५॥ सर्गः चरितम् नाAGRUKruarAIRGEANTABAIGALUREJA DIRELEASEARINEETARINEETHEIRATRAI वसन्त शिशिरकी समाप्ति होने पर वनके सब हो वृक्ष फूलों और मंजरियोंसे लद जाते हैं तथा इनके परागको पीकर उन्मत्त भ्रमर ऋतुराजके स्वागतके गीत गाते हैं। तरुण जनोंको परमप्रिय वसन्त ऋतुके पदार्पण करते ही वरांगराजकी चन्द्रमुखी सुकुमारो पलियाँ उसके साथ वनविहारको जाती थीं। वहाँपर वे अपनेको फलोंके ही आभूषणोंसे सजाती थीं तब वनके किसी # रमणीक एकान्त भागमें जाकर अनेक रति-क्रीड़ाएँ करके उसके साथ रमती थीं ।। १२॥ ग्रीष्म ग्रीष्म-ऋतुकी दारुण ज्वालाको शान्त करती हुई मेघोंकी घटाके बरस जाने पर पृथ्वीपर छोटे-छोटे अंकुर तथा सुकुमार घास निकल आती है, श्यामवर्ण मेघ-घटाको देखकर मयूर, हस्ती, हिरण आदि पक्षी पशु आनन्दसे उन्मत्त हो जाते हैं। ऐसी वर्षा ऋतु में अपनी प्रेयसो पत्नियोंसे घिरा हुआ वह सून्दर विशाल धरणीधरों पर विहार करता था, जो कि अपनी वनस्पति तथा जलश्रीके कारण विस्तृत, विशाल तथा उन्नत मेघोंके सदृश ही मनोहर लगते थे। १३ ।।। जब धनघोर वर्षा होती थी, परस्परमें टकराते हुए बादलोंसे भयंकर अशनिपात तथा भीमगर्जना होती थी, प्रत्येक मेघमाला विद्युतरूपी लतासे युक्त रहती थी तथा रात्रिके अभेद्य गाढ़ अन्धकारमें जुगुनुओंके प्रकाशको मालासे कहीं-कहीं। अन्धकारमें छेदसे हो जाते हैं ऐसी वर्षा-ऋतु में आनर्तपुरेशका समय उन्नत महलोंमें बीतता था ॥ १४ ॥ श्रीवरांगराज अपनी ही इच्छासे इस पथ्वीपर आये हए इन्द्र के समान थे। उनकी पांचों इन्द्रियों रूपी गाएँ अपने-अपने विषयोंका उत्तम प्रकारसे भोग करनेकी निर्दोष शक्तिसे सम्पन्न थीं, सेवापरायण इष्टजन उन्हें सदा ही घेरे रहते थे। अतएव वे वर्षाऋतुमें उपयुक्त अनेक प्रकारके भोगोंका यथेच्छ रूपसे सेवन करते थे ।। १५ ।। .१ क द्रुमार्तभ्रमतोप। २.मनीते। ३. [ °शालायाम ] | ४. म स्त्रिया वृतः । For Privale & Personal use only [४२३] Jain Education interational www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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