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________________ द्वाविंशः कदाचिदुद्यानवनेषु रेमे रेमे पुनः काननपर्वतेषु । क्वचिन्नदीनां पुलिनेषु रेमे रेमे सरस्स्वम्बुजसंकुलेषु ॥ १६ ॥ कदाचिदाप्तैः सुतबन्धुमित्रैः शिष्टश्च' तुष्टैर्बहुशास्त्रगोष्ठया। युद्धातिशौण्डैर्यमदण्डकल्पैः सुरैः सरूपैः सभगैश्च रेमे ॥ १७॥ गन्धर्वगीताभिरतिः कदाचित्कदाचिदर्हत्कथया प्रसक्तः। प्रासावदेशेषु वराङ्गनानां क्रीडासु रेमेऽतिमनोहरासु ॥१८॥ यद्यन्तृलोके पुरुषेश्वराणां प्राप्तव्यमासोदनवाप्यमन्यैः। महीपतिः सोऽप्रतिमप्रकाशस्तत्तत्समग्रं समवाप सम्यक् ॥ १९॥ सर्गः MERALDIERemem CRIMIRRITATA- DH व -TARA . सुखमग्न राजा किसी समय वे उद्यानों तथा वहाँपर बने कृत्रिम पर्वतोंपर विहार करते थे। दूसरे समय रम्य वनस्थली तथा प्राकृतिक पर्वतोंपर क्रीड़ा करने निकल जाते थे। तीसरे अवसर पर वे नदियोंके निर्मल तथा विस्तृत वालुकाय प्रदेशोंपर केलि करते देखे जाते थे तथा अन्य समय विकसित कमलोंसे व्याप्त विशाल जलाशयोंमें जलविहारका आनन्द लेते थे ॥ १६ ॥ अनुभवी तथा हितैषी गुरुजनों, स्नेही बन्धुओं, अभिन्न हृदय मित्रों, गुणग्राही अनुजों, स्वभावसे ही शिष्टों तथा सांसारिक विषयोंसे संतुष्ट सज्जनोंको समष्टिमें बैठकर यदि एक समय वह अनेक शास्त्रोंके गहन विषयोंपर विमर्श करता था तो दूसरे ही समय देखा जाता था कि श्री वरांगदेव स्वस्थ, सुन्दर, आकर्षक, युद्धकलामें अत्यन्त पटु तथा शत्रओंके संहारमें साक्षात् यमराजके दंडके ही समान घातक सच्चे वीरोंके साथ शस्त्रविद्याके अभ्यास में तल्लीन हो रहे हैं ॥१७॥ यदि एक समय उन्हें संगीत-शास्त्रके विशेषज्ञ गन्धर्वोके सुमधुर गीत आदिके सुननेमें मस्त पाते थे, तो दूसरे क्षण हो देखा जाता था कि श्री अर्हन्त भगवानके चरित्र तथा उपदेशोंकी चर्चा करते-करते वे अपने-आपको भूल गये हैं। इतना ही नहीं, वह दृश्य भी सुलभ ही था जब कि युवक राजा अपने प्रासादोंकी ऊँची-ऊँची छतोंपर प्राणप्यारी पत्नियोंकी मनमोहक मधुर रतिकेलियों में लीन होकर उन कुलोन सुन्दरियोंमय हो जाता था ।। १८॥ पुण्य प्रशंसा इस मनुष्य लोकमें जनवर्गके रक्षक राजवर्ग जिन-जिन भोग परिभोगकी सामग्रियोंको प्राप्त करना चाहते हैं, उनको ही नहीं अपितु जिन्हें दूसरे प्रबल पराक्रमो परिपूर्ण प्रयत्ल करके भी प्राप्त न कर सके थे उन सबको भी पृथ्वीपालक H४२४] श्री वरांग- राजने परिपूर्ण अवस्थामें यथाविधि प्राप्त किया था, क्योंकि उस समय उसके समान पुण्यात्मा और प्रतापी कोई दूसरा न था ॥ १९ ॥ १.म शिष्यैश्च । Rametal Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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