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वराङ्ग चरितम्
इत्थं व्यतीते च सखेन काले महीपतिः प्राप्तमनोरथानाम् । रवा कदाचिद्वनकाननेषु कृतानुयात्रः परमाविवेश ॥ २० ॥ तस्यापत्नी पुरमाविशन्तं प्रजातिकान्तं सततोपशान्तम् ।
द्विषज्जनान्तं विविधद्धमन्तं प्रासादजालान्तगता ददर्श ।। २१ ।। तस्यास्तदानीमवलोकयन्त्या मनस्यभूवन्सकला विशेषाः । परप्रमोदो जनतानुरागः सन्माननीयत्वमथात्मनश्च ।। २२ ।। पुरा तु मत्स्वामिनि निर्गतेऽस्मिन्नन्याङ्गनासह्यभवापि दुःखम् । तदागमाम्भः परिषेकयोगान्मनः पनः सा कुरुतामपेतम् ( ? ) ॥ २३ ॥
राजाकी ही यह अवस्था न थो अपितु प्रजामें भो कोई ऐसा न था जिसके मनोरथ सफल न हुए हों। ऐसे सम्पन्न प्रजाजनोंका राजा उक्त विधिसे अपने जीवनको सुख और शान्तिके साथ व्यतीत कर रहा था। इसी क्रमसे एक दिन वन तथा उद्यानों में मनोविनोद करनेके बाद लौटकर वह नगर में प्रवेश कर रहा था तथा उसके पोछे-पीछे बन्धुबान्धव, अधिकारी, आदि चले आ रहे थे ॥ २० ॥
विवेकिनी महारानी
उसी समय श्री वरांगराजकी ज्येष्ठ (पट्टरानो) पत्नी राजभवनको जालीदार खिड़की में बैठी थी । संयोगवश नगरमें प्रवेश करते ही उनपर पट्टरानीकी दृष्टि पड़ी, उन्हें देखते-देखते हो पतिव्रता रानीके मनमें आया कि 'मेरे पति जनताको प्राणोंसे भी प्यारे हैं, वे सब परिस्थितियोंमें शान्त और प्रसन्न ही रहते हैं, तो भी प्रजा की क्षेम कुशलके शत्रुओंका नाश करनेमें प्रमाद नहीं करते हैं, इनकी आध्यात्मिक तथा भौतिक ऋद्धियोंके विषयमें तो कहना ही क्या है ॥ २१ ॥
उसे एक-एक करके अपने पतिकी सब विशेषताएँ याद आ रही थीं। वह सोचती थी 'इनके राज्य में सारा नगर कैसा आनन्दविभोर रहता है, यह कैसे अद्भुत सुन्दर हैं, इन पर प्रजाको कैसी अकम्प भक्ति है, इनके ही कारण आज इस विशाल राज्यका एक-एक आदमी मुझे माताके समान पूजता है ॥ २२ ॥
कुछ समय पहिले जब मेरे यही प्राणनाथ धूर्तोंपर विश्वास करनेके कारण अपने राजसे निकल गये थे तो मैंने ऐसे-ऐसे दुःख भरे थे जिन्हें दूसरी कुलवधुएँ न कभी सहती हैं और न सह हो सकती हैं। किन्तु अब फिर इनके समागमरूपी शीतल जलके सिंचनसे मन शान्त ही नहीं हुआ है अपितु सम्भवतः मेरा क्या कर्त्तव्य है इस ज्ञानसे भी शून्य हो गया है ।। २३ ।।
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द्वाविंश:
सर्गः
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