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द्वाविंशः
बराङ्ग चरितम्
कृतं मदीयं कियदस्ति भद्रं कियच्चिरं तिष्ठति वा मयि श्रीः। इतः किमु स्याद्धवितव्यता वा मया पुनः किं करणीयमत्र ॥ २४ ॥ एतानि चान्यानपि चिन्तयन्त्याः सामीप्यमभ्यद्धरणीपतिश्च ।। ससंभ्रमा सा प्रविलोक्य देवं ननाम पादाम्बुरुहाय तस्य ॥ २५॥ अनुज्ञया तस्य नुपस्य देवी पार्वोपविष्टा हि तदा प्रहृष्टा । कृताञ्जलिं पङ्कजकुमलाभां विज्ञापयामात्मवती२ बभूव ॥ २६ ॥ कथं सुखं केन कुतश्च किं वा कथं भवेत्कर्म सुखानुबन्धि । अखण्डितं तन्निरुपद्रवं च श्रोतु मनो मां त्वरयत्यतीव ॥ २७॥
सर्गः
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क्या पता है ! मेरा पूर्वकृत पुण्य कबतक मेरा साथ देगा? अथवा कबतक मैं इस पट्टरानीके पदकी लक्ष्मी व सौभाग्यकी अधिकारिणी रहूँगी ? कौन जानता है पूर्वोपाजित कर्मस्वरूप भाग्य इसके आगे क्या करेगा? फलतः अपने सौभाग्यके मध्याह्न के रहते-रहते मुझे क्या करना चाहिये । २४ ।।
इन विकल्पों तथा इसी प्रकारकी दूसरी बातोंको सोचनेमें पट्टरानी अनुपमा इतनी व्यस्त हो गयी थीं कि उन्हें दूसरी बातोंका ध्यान ही रह गया था, इसी समय धरणोपति उसके बिल्कुल निकट जा खड़े हुए थे। आहट पाते ही वे घबड़ाकर बड़े वेगसे उठ खड़ी हुई थीं तथा पतिके चरण कमलोंमें मस्तक झुका दिया था ।। २५ ।।
पट्टरानीको आत्मगौरवके साथ आत्मजिज्ञासा भी थो, पतिको निकट पाकर उनके हर्षकी सीमा न थी तो भी वे लोकलाजवश दूर ही बैठ गयी थीं किन्तु वरांगराजके अति आग्रहके कारण उन्हें एक ही आसनपर साथ बैठना पड़ा था। इसके उप
रान्त उन्होंने दोनों सुकुमार हाथ जोड़ लिये थे जो मिल जानेपर ऐसे प्रतीत होते थे मानो कमलको कलो हैं और रानी ने अपनी । मानसिक शंकाओंको उसके सामने रख दिया था ।। २६ ।।
'हे नाथ! सांसारिक सुख क्योंकर उत्पन्न होते हैं ? किन पदार्थों द्वारा इनकी सृष्टि होती है ? इनका आदि स्रोत क्या है ? स्वरूप क्या है, किस प्रकार आचरण करनेसे वे कर्म ऐसे सुखमय बन्धके कारण होते हैं, जिसका फल बीच में न तो खंडित ही होता है और न उपद्रवके रहते हुए भी व्यर्व होता है ? इन सब रहस्यमय बातोंको सुनने तथा समझनेके लिए मेरा मन उतावला हो रहा है ।। २७ ।।
१. [ कृत्वाञ्जलि ।
२. क °मात्मपतो, [ °मात्मपति ] ।
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