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बराङ्ग
चरितम्
निशम्य वाणीं सकलां प्रियायाः स्वभावसद्धर्मरतिर्नरेन्द्रः । विमक्तिधर्म प्रविहाय तस्य' प्रोवाच सम्यग्गहिधर्ममेव ॥ २८ ॥ स्थूलामहिंसामपि सत्यवाक्यम चोरतादाररतिव्रतं च । भोगोपभोगार्थपरिप्रमाणमन्वर्थदिग्देशनिवृत्तितां
च ॥ २९ ॥ सामायिक प्रोषधपात्रदानं सल्लेखनां जीवितसंशये च। गृहस्थधर्मस्य हि सार एषः संक्षेपतस्तेऽभिनिगद्यते स्म ॥ ३०॥ अनन्यदृष्टित्वमनन्यकोतिनिःशङ्कता निविचिकित्सता च । जिनेन्द्रपादाचनतत्परत्वं नामाहतों सष्टम भष्ट्वन्ति ।। १ ।।
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___सागार धर्मका रूप सम्राट:वरांगराजको स्वभावसे सत्यधर्मके प्रति असीम अनुराग था फलतःप्राणप्रियाके उक्त सब प्रश्नोंको सुनकर ही मोक्षकी दिशामें ले जानेवाले सकल अथवा अनगार धर्मकी उस समय चर्चा अनुपयुक्त समझकर उसको केवल वही धर्माचार
बताया था जिसे पालना प्रत्येक गृहस्थाश्रममें रहनेवाले व्यक्तिका प्रथम कर्तव्य है ।। २८ ।। र अतएव सांकल्पी त्रस-हिंसाके त्यागमय स्थूल ( अणु ) अहिंसा, सत्य अणुव्रत, चोरीका त्याग ( अचौर्य ) परपतिसे रति
का त्याग ( स्वपति व्रत ) भोग तथा परिभोगके पदार्थोंका सूक्ष्म-विचार पूर्वक प्रमाण निश्चित करना ( भोगोपभोग परिमाण), सार्थकरूपसे दिशाओं में गमन ( दिग्वत ), तथा देशोंके पर्यटन ( देशव्रत ) का नियम करना ।। २९ ।।
महाव्रतोंको धारण करनेका अभ्यास करनेकी अभिलाषासे त्रिसन्ध्या सामायिक, पर्वके दिनोंमें प्रोषधोवास, सत्पात्रको आहारादि दान तथा जब जीवनका और आगे चलना संशय में पड़ जाये उस समय सल्लेखना व्रतको धारण करना। इन सब व्रतोंको जो कि गृहस्थ धर्मके सार हैं, संक्षेपमें श्री वरांगराजने अपनी पट्टरानीको समझाये थे ।। ३० ।।
सम्यकदर्शन किन्हीं दूसरे तत्त्वों पर श्रद्धा न करना, वीतराग प्रभुके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वचर्चाको छोड़कर किसी अन्य सराग देवके । उपदेशोंकी बात भी न करना, जीवादि सातो तत्त्वोंके स्वरूपमें शंका न करना, शरीर आदिकी स्वाभाविक मलीनता आदिको
ध्यान में रखते हुए किसीसे घृणा न करना तथा सदा ही श्री एक हजार आठ देवाधिदेव जिनेन्द्र प्रभुके चरणोंकी ही पूजा करनेके लिये तत्पर रहना, इन सब गुणोंको ही आर्हत् ( सम्यक् ) दृष्टि ( दर्शन ) कहते हैं तथा यही सब प्रकारसे आराधनीय है ।।३१।। १. म तस्मै । २. म निनिगद्यते।
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