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________________ बराङ्ग द्वाविंशः चरितम् सर्गः शीलानि दानानि तपांसि पूजा: सम्यक्त्वपूर्वाणि हाफलानि । सत्पुण्यनिवर्तनकारणानि चतुर्विधानीह वदन्ति तज्ज्ञाः ॥ ३२॥ सर्वेषु तेष्वप्रतिमेषु भद्रे तत्साधनेषु प्रवरा जिनर्चा । । सास्मद्विधानामपि शक्यरूपा शेषं तु सर्व गृहिणामशक्यम् ॥ ३३ ॥ ख्यातार्ककोतिषभस्य सूनुः प्रजापतिश्चक्रभृतां वरिष्ठः । धर्मार्थकामनयरत्नमतिः स नः प्रमाणं भवतो नरेन्द्रः ।। ३४ ॥ गहाश्रमे संवसते नराणां धर्माथिनामवर सुखप्रियाणाम् । अस्माद्विधानां मनुरादिराजः सोऽष्टापदेतिष्ठिपदहदर्चाः ॥ ३५ ॥ शोलों, दानों, तप आदिके विशेषज्ञोंका निश्चित मत है कि सम्यकदर्शनपूर्वक धारण किये गये व्रत, दिये गये दान, तप तथा जिनेन्द्र चरणोंकी पूजा महान् फलको देते हैं।' संसार परावर्तनमें सम्यक्त्वपूर्वक आचरित उक्त कर्म चारों प्रकारको विशाल पुण्यराशिका निर्माण करते हैं ॥ ३२ ॥ जिनपूजा हे भद्रे ! पूर्वोक्त सब ही पुण्यके कारणोंके एकसे एक बढ़कर होनेपर भी उन सबमें श्री एक हजार आठ जिनेन्द्रदेवकी। चरणपूजा बढ़कर है। इतना ही नहीं हमारे ऐसे सांसारिक विषय भोगोंमें लीन व्यक्तियोंके लिए वह सबसे अधिक सुगम है। शेष सब ही सत्कर्म गृहस्थीके झंझटोंमें फंसे हम लोगोंके लिए बहुत कठिन हैं। इस दिशामें इस कालके सर्वप्रथम चक्रवर्ती भरत महाराज ही हमारे आदर्श हैं ॥ ३३ ॥ वे इस युगके प्रवर्तक महायशस्वी विश्वविख्यात श्री एक हजार आठ ऋपभदेवके ज्येष्ठ पुत्र थे। हमारे क्षेत्रके पुरुषोंकी समुचित राज तथा समान व्यवस्था करके वे वास्तविक प्रजापति बने थे तथा पराक्रमका प्रदर्शन करके चक्रवतियोंके अग्रगण्य हुए थे। इतना ही नहीं एक दूसरेके साधक होते हुए धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थके सेवनका आदर्श उन्होंने उपस्थित किया था और रत्नत्रयकी तो वे साक्षात् मूर्ति ही थे।॥ ३४ ॥ हे प्रिये ! हम लोग सदृश प्राणी जो कि गृहस्थाश्रममें रह ही नहीं रहे हैं अपितु सांसारिक सुखोंके पोछे-पीछे दौड़ते फिरते हैं, तो भी धर्मको भूले नहीं हैं और उक्त स्वार्थीको तिलाञ्जलि दिये बिना ही धर्मार्जन करना चाहते हैं, उनके लिये वही प्रथम चक्रवर्तो मनुके समान हैं जो अष्टापद पर केवल श्री आदिनाथ प्रभुके चरणोंको पूजा करके ही मोक्ष महापदको प्राप्त हो गये थे ।। ५ ।। १. [ संवसता]। २. क धर्मार्थिनामर्थ । careबाबामवासन्चाsamPALIHERaut ५ [४२८] www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education international
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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