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________________ वराङ्ग द्वाविंशः सर्गः चरितम् शचोपतिर्दक्षिणलोकपालो महाप्रभावोऽष्टगुणद्धियुक्तः । जिनेन्द्रसेवां परया मुदासौ करोति सम्यक्त्वविशुद्धिरित्थम् ॥ ३६ ॥ नन्दीश्वरेऽहत्प्रतिमार्चनाय समद्यमन्ते प्रतिवर्षमिन्द्राः । कथं न कुर्याम वयं जिनार्चा संसारपाशच्छिदुरप्रभावाम् ॥ ३७ ॥ एकापि शक्ता जिनदेवभक्तिर्या दुर्गतेर्वारयितुं हि जीवान । आसीद्वितत्सौख्यपरं' परार्थ पुण्यं नवं पूरयितुं समर्था ॥ ३८ ॥ ध्रुवो विनाशाऽजितपापराशेधुंवा हि दुःखस्य विपत्तिरिष्टा । सुखान्यवश्यं स्वयमाश्रयन्ते भक्तिर्दढा यस्य जिनेश्वरेषु ॥ ३९ ॥ भरत महाराजके अतिरिक्त शचीके प्राणनाथ देवोंके राजा इन्द्र जिन्हें दक्षिण दिशाका लोकपाल इस संसारमें कहा जाता हैं, जिसके विस्तृत प्रभावकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं तथा जो अष्टगुण और अणिमा आदि ऋद्धियोंका स्वामी हैं वह भी जब अर्हतकेवलीकी पूजाका अवसर पाता है तो उसे बड़े उल्लासपूर्वक प्रसन्नताके साथ करता है क्योंकि ऐसा करनेसे ही सम्यक्त्वकी विशुद्धि बढ़ती है ।। ३६ ॥ नन्दीश्वर विधान कौन नहीं जानता है कि स्वर्गके इन्द्र प्रतिवर्ष श्री नन्दीश्वर द्वीपमें विराजमान अकृत्रिम जिनबिम्बोंकी विशाल पूजा है करनेके लिए बड़े हर्ष के साथ अष्टाह्निका पर्व में विपुल आयोजन करते हैं। अतएव हे प्रिये ! क्या कारण है कि हम लोग यथा शक्ति जिनेन्द्र पूजा करनेका समारंभ न करें ? क्योंकि उसका निश्चित परिपाक संसाररूपी पाशको छिन्न-भिन्न कर देता है ॥ ३७॥ श्री एक हजार आठ जिनेन्द्रदेवकी भक्ति अकेले हो जीवोंको संसारकी समस्त दुर्गतियोंसे बचाकर सुगतिकी तरफ ले जानेमें ही समर्थ नहीं हुई, अपितु उसके प्रतापसे सब प्रकारके सुख प्राप्त हुए हैं, अलभ्य अर्थ भी सुलभ हुए हैं तथा नूतन पुण्यका विपुल भंडार स्वयं ही बढ़ा है ।। ३८ ॥ पूर्वजन्मोंमें अनेक अशुभ करनेके कारण जो पापराशि एकत्रित हो गयी है श्री जिनेन्द्र पूजासे उसका नाश अवश्यंभावी है, तथा उस जीवको वर्तमान विपत्तियोंके विनाशको कोई भी शक्ति रोक नहीं सकती है, जिसकी जिनेन्द्र देवपर अटल भक्ति है उसे खोजते डा सुख आगे इसमें तनिक भो सन्देहको स्थान नहीं है ।। ३९ ॥ रामचEURGautamMRITHILIARIESwara [४२९) १. [ आसीद्धि]। Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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