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________________ वराङ्ग चरितम् SWWW SMS अनेकजात्यन्तरसंचितं यत्पापं समर्था प्रविहर्तुमाशु | तमः समस्तं हि दिगन्तरस्थं भानोः प्रभाचक्रमिवोदयस्थम् ॥ ४० ॥ जन्मानुबन्धोनि सुदारुणानि संसारदीर्धीकरणव्रतानि । कर्माणि मर्त्या जिनपूजनेषु विरूढमूलान्यपि निर्धुनन्ति ॥ ४१ ॥ पूज्यानि तान्यप्रतिशासनानि रूपाणि लोकत्रयमङ्गलानि । संस्थाप्य नित्यं समुपासयन्तः प्रत्यक्ष सर्वज्ञफलं लभन्ते ।। ४२ ।। जन्मस्वतोतेषु जिनेन्द्रपूजामुपास्य ये तीर्थकरा बभूवुः । आस्थाप्य तेषां पु रचनानि भूयः स्वयं तोर्थकरा भवन्ति ॥ ४३ ॥ Jain Education International शुद्ध जिनभक्ति अनन्त भव भवान्तरोसे संचित किये गये असीम पाप पुजको थोड़ेसे ही समयमें उसी प्रकार समूल नष्ट कर देती है जिस प्रकार उदयाचल पर आये हुए बालरविको सुकुमार किरणें उस समस्त गाढ़ अन्धकारको नष्ट कर देती हैं। जो कुछ क्षण पहिले हो सब दिशाओं और आकाशको व्याप्त किये था ।। ४० ।। जो कर्म कितने ही भवोंसे जीवके पोछे पड़े हैं, उसे दारुणसे दारुण नारकोय आदि दुख देते हैं; उन कुकर्मोंका एक ही अविचल कार्य होता है; वह है जीवके संसारचक्रको बढ़ाना, तथा जिनकी जड़ें इतनी पुष्ट हो जाती हैं कि उन्हें हिलाना भी दुष्कर हो जाता है, उन सब कर्मोंका भी मनुष्य जिनेन्द्रपूजारूपा महायज्ञ से सर्वथा भस्म कर देते हैं ।। ४१ ।। श्री एक हजार आठ जिनेन्द्रदेवके आदर्श के प्रतीक श्री जिनबिम्ब परम पूज्य हैं, क्योंकि जिनेन्द्र प्रभुका शासन ऐसा है कि कोई भी दूसरा शासन उसकी थोड़ी थी सी भी समता नहीं कर सकता है, उनका मूर्तीक रूप तथा आदर्श तीनों लोकों के कल्याणका साधक है । अतएव जो भव्यजीव विधिपूर्वक स्थापना करके प्रतिदिन शुद्धभाव और द्रव्यके द्वारा उनका पूजन करते हैं वे कुछ समय बाद सर्वज्ञतारूपी फलको पाते हैं ।। ४२ ।। मूर्तिपूजा संसारचक्रमैं घूमते हुए जिन जीवोंने अपने पूर्वभवों में वीतराग प्रभुको शुद्धभाव और द्रव्यसे उपासना की थी वे हो आगे चलकर त्रिलोकपूज्य तीर्थंकर हुए थे । अतएव इसी पुरातन परम्परा के अनुसार जो प्राणो लोकोपकारक तीर्थंकरों की स्थापना करके पूर्ण विधिपूर्वक उनकी द्रव्य तथा भाव पूजा करते हैं, वे स्वयं भो उन्हीं पूज्य तीर्थंकरोंके समान तीर्थंकर पदको पाकर 15 संसारके सामने उत्तम मार्ग उपस्थित करते हैं ।। ४३ ।। For Private & Personal Use Only S द्वाविंशः सर्गः [ ४३० ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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