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________________ वराङ्ग चरितम् D नोsues यदि लोकभूत्यै लोकान्धकारे' न्यपतिष्यदेवम् । जिनेन्द्रबिम्बं यदि नाभविष्यदज्ञानगर्तेषु जनो न्यक्ष्यत् ॥ ४४ ॥ परीषहारींश्चतुरः कषायान्विधूय जाति च जरां च मृत्युम् । ये निर्वृतिस्थानमवापुरीशास्तदचनान्नाधिकमन्यदस्ति ॥ ४५ ॥ इहैव पूजाफलतो जिनानां स्वेष्टार्थसंसिद्धिफलं लभन्ते । जन्मन्यमुत्रापि च देवलोके प्राप्स्यन्ति दिव्यान्विषयोपभोगान् ॥ ४६ ॥ अल्पश्रमेणाल्पपरिव्ययेन जिनालयं यः कुरुतेऽतिभक्त्या । महाधनोऽत्यर्थसुखी च लोके गम्यश्च पूज्यो नृसुरासुराणाम् ॥ ४७ ॥ सूर्योदय होनेपर संसारके सब काम चलत हैं तथा उनके है । किन्तु यदि किसी कारणसे सूर्यका उदय होना रुक जाये तो इसी प्रकार यदि जिनेन्द्र बिरूपी सूर्यका उदय इस पृथ्वोपर महागर्त में पड़कर कभीके नष्ट हो गये होते ॥ ४४ ॥ न आतप और प्रकाशके कारण उसकी सर्वतोमुखी समृद्धि होती सारा संसार गाढ़ अन्धकार तथा दुखके गर्त में समा जायेगा । होता तो इस जगतके सब ही प्राणी अज्ञानरूपी अन्धकारके क्षुधा, तृषा आदि बाईस परीषहों, क्रोध आदि चार कषायों, जन्म, पराधीनतामय जरा तथा अकथनीय यातनामय मरणको समूल नष्ट करके जो महान् आत्मा पुनरागमनहीन शाश्वत स्थान मोक्षको चले गये हैं, उनकी पूजा करनेकी अपेक्षा संसारका कोई भी दूसरा कार्य ऐसा नहीं है जिसे करके जीव अधिक पुण्य कमा सकता हो ।। ४५ ।। वीतरांग प्रभुकी पूजा करके जीव इस भवमें ही अपने मनचाहे फलोंको प्राप्त करते हैं तथा इष्टजनों या वस्तुओंसे उनका समागम होता है ! यहाँसे मरने के बाद दूसरे जन्माने अनेका वर्गलोक में पाते हैं जहाँपर उनको अलोकिक भोग तथा विषयोंकी मन माफिक प्राप्ति होतो है ।। ४६ ।। Jain Education International वीतराग प्रभुके चरणों में जिन प्राणियोंकी प्रगाढ़ भक्ति होती है वे श्री जिनमन्दिर बनवाते हैं। यद्यपि जिनालय बनवाने अन्य सांसारिक कार्यों की अपेक्षा बहुत थोड़ा-सा अवश्य होता है तथा उससे भी कम धन खर्च होता है, तो भी इस शुभ कार्यकर्ता लोग संसार में सबसे अधिक धनी तथा सुखी देखे जाते हैं। लोग उनके पास जाकर अपना सम्मान प्रकट करते हैं तथा नर, असुर और सुर भी उनकी पूजा करते हैं ।। ४७ ।। १. लोकोऽन्धकारे ] । For Private Personal Use Only द्वाविंश: सर्गः [ ४३१ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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