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बराङ्ग चरितम्
अनार्य भावैरजितेन्द्रियैयें
कुदृष्टिदृष्टान्तयथानुरक्तैः ' । उन्मोहितास्तान्सुगतौ दधाति ये ऽतिष्ठिपच्चैत्यगृहं जिनानाम् ॥ ४८ ॥ अनाप्तचर्यागम दुर्विदग्धमधः पतन्तं नरलोकमेनम् । उत्पातवातैरभिहन्यमानं पोतं प्रसन्नानिवद्धये ॥ ४९ ॥ योऽकारयद्वेश्म जिनेश्वराणां धर्मध्वजं पूततमं पृथिव्याम् । उन्मार्गयातानबुधान्वराकान्सन्मार्गसंस्थांस्तु क्षणात्करोति ॥ ५० ॥ येनोत्तर्माद्धं जिनदेवगेहं संस्थापितं भक्तिमता नरेण । तेनात्र सा निःश्रयणी धरण्यां स्वर्गाधिरोहाय कृता प्रजानाम् ॥ ५१ ॥
जिनमन्दिर
जिनकी अपनी निजी विचारधारा रागद्वेषसे परे नहीं हैं तथा इन्द्रियोंके जीतनेको तो बात ही क्या है; जो कि इन्द्रियोंके पूर्ण वशमें हैं ऐसे ही लोग उल्टी श्रद्धा के अनुकूल यद्वा तद्वा दृष्टान्त देकर किसी मिथ्या मतकी स्थापना करते हैं तथा उसके द्वारा कितने ही प्राणियों को आत्मज्ञानसे विमुख कर देते हैं। किन्तु जो भव्य वीतराग प्रभुके बिम्बोंकी स्थापनाके लिए जिनालय बनवाता है वह ऐसे लोगोंको भी सुमार्गपर ले आता है ॥ ४८ ॥
हे प्रिये ? इस मनुष्य गतिको एक जहाज समझो, कल्पना करो कि झूठे धर्मप्रवर्तकोंके द्वारा कहे गये शास्त्र तथा - आचरणरूपी आग इसके भीतर भभक उठो है, जिसके कारण सछिद्र होकर यह नोचेको जाने लगा है। इतना ही नहीं, समुद्र में भीषण झंझावात बह रही है जो कि इसे उल्टी दिशा में ले जानेके लिए प्रबल थपेड़े मार रही है ।। ४९ ।।
वे
किन्तु जो व्यक्ति जिनालय बनवाते हैं अनुकूल पवन किसी डूबते जहाजको बचा लेती है। होना आवश्यक है ।। ५० ।।
इस मनुष्यलोकरूपी जहाजको वैसे ही उभार लेते हैं जैसे शान्त और धर्म के अक्षुण्ण अस्तित्वको स्थिर रखनेके लिए परम पवित्र जिनालयों का
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जो विचारे ज्ञानहीन प्राणी कुमार्गपर चले जाते हैं उन्हें भी जितविम्बों के दर्शन क्षणभर में ही सन्मार्ग पर सहज ही ला देते हैं । भक्ति भावसे भरपूर हृदययुक्त जिस किसी मनुष्यके द्वारा शास्त्रमें कहे गये विभवयुक्त विशाल जिन मन्दिरकी स्थापना की जाती है, वह व्यक्ति इस पृथ्वी पर उन सीढ़ियोंको बनवा देता है, जिनपर चढ़कर संसार के भोगविषयों में लिप्त क्षुद्र प्राणी भी स्वर्ग में पहुँच सकते हैं ॥ ५१ ॥
[ ४३२]
५. [ पथानुरक्तः ।।
२. [ योऽतिष्ठप° ] ।
द्वाविंश: सर्ग:
३. क वद्रियेव [ वद्रियेत ] । ४. क पृथुव्यां ।
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