SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 428
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विंशतितमः बराङ्ग चरितम् प्रियसुतं च समैथुनमात्मनश्चिरतरेण समीक्ष्य महीपतिः। वसुमति लवणार्णवमेखला प्रविजितेति मया स्फुटमभ्यधात् ।। ७५ ॥ अतुलहर्षसमन्वितमानसौ समनुरक्तजनैः सह भूभुजौ। वरतनोः कथया श्रवणीयया ह्यवसतां तदहविगतोत्सुकौ ॥ ७६ ॥ प्रतिगमय्य निशामदयागते दिनकरे स्वरया कृतमबलः । विश पुरं जननीमभिवादय त्वमिति भूमिपतिः सुतम न्वशात् ॥ ७७ ॥ इति नपाभिहितो रणकर्कशः पितरमिस्थमवोचविदं वचः । तमवतयं रणातिथिमायुधस्तदनु नाथ पूरं प्रविविक्ष्यते ॥ ७८ ॥ सर्गः भाँति पीसे गये श्रेष्ठ चन्दनका सुन्दर लेप लगा रहता था। इन्हीं भुजाओंको फैलाकर उन्होंने अपने साले तथा पुत्रका जोरोंसे आलिंगन किया था ।। ७४ ।। आत्मीय मिलन अत्यन्त दीर्घ अन्तराल के बाद अपने प्रिय साले तथा सदाके लिए खोये हुए ज्येष्ठ प्रिय पुत्रको देखकर ही महाराज धर्मसेनको ऐसा आभास हुआ था कि 'आज मैंने उस विशाल पृथ्वीको पूर्णरूपसे जीत लिया है जिसकी मेखला लवण महासमुद्र है।' फलतः इस उद्गारको भी उन्होंने स्पष्ट भाषामें व्यक्त कर दिया था। दोनों ही राजाओके मनोंमें अमर्याद हर्ष सागर उमड़ रहा था ।। ७५ ।। वे दोनों अपने समान शील, वय आदि स्नेही तथा अनुकूल लोगोसे घिरे हुए थे। उस समय उनके सुनने और कहने योग्य एक वरांगकी ही कथा रह गयी थी। वह पूराका पूरा दिन उसी कथाको कहते सुनते बीत गया था तथा दोनोंकी उत्कण्ठाएं और दुःख शान्त हो गये थे। महाराज धर्मसेनने संध्यासमय कुमार वरांगको आज्ञा दी थी ।। ७६ ॥ हे वत्स ! रात्रिके आरामसे बीतनेपर ज्योंही सूर्य उदयाचल पर आनेको हों तुम शीघ्रतासे प्रातःकालीन मंगल विधिको समाप्त कर लेना तथा तुरन्त ही राजधानीको प्रस्थान कर देना। नगरमें प्रवेश करके सबसे पहिले अपनी माताजोके दर्शन करना' ।। ७७।। युवराज वरांग स्वभावसे ही दारुण योद्धा थे अतएव महाराजकी उक्त आज्ञाको सुनकर उन्होंने यही निवेदन किया था। हे नाथ ! जो शत्रु अतिथि युद्ध करनेके लिए आया है, पहिले मैं उसका दारुण शस्त्रास्त्रोंकी मारसे तर्पण करूंगा। इस विधिसे जब उसका स्वागत हो लेगा तो उसके बाद ही मैं राजधानीमें प्रवेश करूंगा ।। ७८ ॥ 1 ३. क सुमैथुन । १.[ सुतमभ्यधात् ] । [३९५] www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy