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बराज
चरितम्
सर्गः
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'यत्कारणः स्यादनयोविरोधो नरेन्द्रयोरप्रतिवीर्यभासोः। स एव हस्ती यदि दीयते चेत्युस्त्वाभिमानस्य हि कोऽधिकारः ॥ ६८ ॥ अयं च राजेन्द्र समानसेनो नरेन्द्रसेनः समरे समर्थः । सर्वस्वमादाय तु यातुकामः कथं पुनर्यास्यति हस्तिमात्रात् ॥ १९ ॥ कालो व्यतीतो नरदेव शान्तो दानाश्रयस्थानविधिस्तथैव ।। उपस्थितौ संप्रति भेददण्डौ तस्मादव ये धत्स्व मति न चान्यत् ॥ ७० ॥ धनं शरीरं बलमायुरैश्यं चिरं न तिष्ठन्ति मनुष्यलोके । यशांसि पुभिः समुपाजितानि स्थायोनि यस्माद्यशसे यतस्व ॥ ७१॥ उपेन्द्रसेनो बलवानीति त्वमवैहि मंस्थाः प्रथितोरुसत्त्वः । कार्यस्य तस्या[] पुरःसरस्य नासाध्यमस्ति क्षितिपाल लोके ॥७२॥
दंड तथा भेद ही उपाय ( मंत्रियोंकी ओर दृष्टि घुमाते हुए ) "आप जानते हैं कि महाराज देवसेन तथा मथुराधिप इन्द्रसेन दोनों ही बलवीय तथा तेजमें अपनी सानी नहीं रखते । इन दोनोंके बीच में जो महा वैर हुआ है उसका जो मूल कारण है, वही हाथी; यदि इस समय आक्रमकको दे दिया जाय, तब हमें क्या अधिकार है कि हम लोग भी अपनेको पुरुष समझें या आत्म गौरव की बात करें ॥६८॥
इसके अतिरिक्त मधुराधिपति भी राजाओंके इन्द्र चक्रवर्तीके समान विशाल और उग्र हैं, इन्द्रसेन स्वयं भी युद्धसंचालनकी कलामें अत्यन्त निपुण है, तथा अपमानित होनेके कारण वह हमारे राज्यका सर्वस्व ही लूटकर लौटना चाहता है, तब । बताइये केवल हाथी लेकर ही वह कैसे लौट जायगा ॥ ६९।।
हे महाराज! इतना निश्चित मानिये कि शान्ति, दान, आश्रय तथा स्थान इन चारों उपायोंके व्यवहारका अवसर सर्वथा निकल चुका है। अब हमारे सामने दो ही मार्ग खुले हैं, वे हैं भेद तथा दण्डके, अतएव आप उनका प्रयोग करनेकी हो सोचिये, इसके अतिरिक्त अब और कुछ भी नहीं हो सकता है ।। ७० ।।
परिवर्तनशील मनुष्यलोकमें न तो प्रभुता ही सदा रहती है, और न अपरिमित सम्पत्ति ही चिरस्थायिनी है । जब शरीर ही किसी न किसी दिन नष्ट हो जाता है तो उसके आश्रित बलवीर्य कहाँ रहेंगे तथा आयुका तो अन्त निश्चित ही है। किन्तु यदि कोई पुरुष सत्कर्म करके यश कमा सके तो वह अवश्य 'काले कल्पशते' पर्यन्त ठहरेगा ।। ७१ ॥
यश हो जोवन है अतएव यशको सामने रखकर ही हमें प्रयत्न करना चाहिये । मथुराका राजा इन्द्रसेन निसन्देह अत्यधिक बनवान है, १. [ यत्कारणं....... विरोधे । २. क कार्यस्य सन्तीति। ३. [ तस्यात्म ] ।
RRIAGIRIJहामन्च
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