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बराङ्ग चरितम्
षोणशः सर्गः
तथापि भूपाः समरे कृतार्थाः स्निग्धा नरेन्द्राः स्वमनोऽनुकलाः । गृहोतशस्त्रास्त्रबलार्थशास्त्राः सन्ति प्रभूता नृपतेः सहायाः॥७३ ॥ श्रयं यशस्यं विदुषां प्रशस्यं तेजस्कर मन्त्रिवरोपदिष्टम् । निशम्य वाक्यं हृदयावर्षी क्षितीश्वरः संमुमुदे स तस्य ॥ ७४ ॥ तंपूज्य तान्मन्त्रिगणानशेषान्विशेषपूजां विजयाय कृत्वा । संभासमक्ष समराभिलाषी युद्धाय सर्व नपतिः शशास ।। ७५ ॥ राजानुमत्या विजये जयेषो शरानुरक्तप्रतिबोधनाय । तस्यां महत्यां ललितापुर्या सघोषणां निर्गमयांचकार ।। ७६ ॥
उसका विशाल वीर्य और तेज सम्पूर्ण देशमें प्रसिद्ध है। तथा हे क्षितिपाल ! जिस सेना के आगे-आगे वह स्वयं चलता है उसके लिए इस संसारमें कोई भी कार्य असाध्य नहीं है ।। ७२ ।।
तो भी महाराज ! जो अनेक राजा लोग आपके सहायक हैं वे भी कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। उन्होंने भी अनेक घोरातिघोर संग्रामोंमें सफलता पायी है। वे राजा लोग केवल आपके अनुकूल हो नहीं हैं अपितु आपपर उनका अपार स्नेह भी है। उनके पास सब प्रकारके शस्त्रास्त्रोंसे सुसज्जित संगठित सैन्यबल ही नहीं है अपितु उनका कोश भी अक्षय है । इतना ही नहीं वे नीतिशास्त्र आदिके परम पंडित हैं ।। ७३ ।'
युद्धं देहि प्रधानमन्त्रीके द्वारा उपस्थित किया गया भेद तथा दण्ड नोति के प्रयोगका प्रस्ताव महाराराज देवसेनके तेज और यशको बढ़ानेवाला ही न था अपितु आर्थिक विकासमें भी साधक था। उसकी सबसे प्रधान विशेषता तो यह थी कि उसे सब ही विद्वानोंने पसन्द किया था। अतएव हृदयको आकर्षक उक्त प्रस्तावको सुनकर महाराज देवसेन अपने मन्त्री विजयपर परम प्रसन्न हुए थे ॥ ७४ ॥
इसके उपरान्त राजाने सब ही मन्त्रियोंका उनके पदके अनुसार स्वागत सत्कार किया था और विशेषकर मन्त्रिवर विजयका । भरी सभामें उन्होंने आपने सामन्त आदि सब ही राजाओंको युद्धके लिए तुरन्त संनद्ध होनेकी आज्ञा दी थी क्योंकि वे निर्णय कर चुके थे कि युद्ध अवश्य करेंगे ।। ७५ ।।।
___मन्त्री विजय चाहता था कि उसके प्रभुको निश्चित विजय हो अतएव राजाकी स्वीकृतिपूर्वक शूरों तथा राजभक्त १. म अर्थ । २. म सर्वान्नृपतीन् शशास। ३. [ विजयो]। ४. [ स्वघोषणां] ।
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