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ऊधिो दिग्विविक्स्थानं कृत्वा यत्परिमाणतः। पुनराक्रम्यते नैव प्रथम तद्गुणवतम् ॥ ११७॥ गन्धताम्बूलपुष्पेषु स्त्रीवस्त्राभरणादिषु । भोगोपभोगसंख्यानं द्वितीयं तद्गणव्रतम् ॥ ११८ ॥ दण्डपाशबिडालाश्च' विषशस्त्राग्निरज्जवः। परेभ्यो नैव देयास्ते स्वपराधातहेतवः ॥ ११९ ॥ छेदं भेदवधौ बन्धगुरुभारातिरोपणम् । न कारयति योऽन्येषु तृतीयं तद्गुणवतम् ॥ १२० ॥ शरणोत्तममानुल्यं नमस्कारपुरस्सरम् । व्रतवद्धय हदि ध्येयं सध्ययोरुभयोः सदा ॥ १२१॥
पञ्चदश
चरितम्
सर्गः
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संचय, गाय-भैंस-बैल-घोड़ा-आदि पशु तथा सेवा टहल आदिके लिए आवश्यक किंकरोंके परिमाणका निश्चय कर लेना कि इतने1 से अधिक नहीं रखेंगे, इसे संतोष अथवा परिग्रह-परिमाण व्रत कहते हैं ॥ ११६ ।।
दिग्वत ऊपर तथा नोचे, पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्खिन दिशाओं में तथा आग्नेय, वायव्य, नैऋत तथा ईशान विदिशाओंमें आने जानेके क्षेत्रका निश्चय करके फिर किसी भी कारणसे उसके बाहर न जानेको दिग्वत नामका गुणव्रत कहते हैं ॥ ११७॥
भोगोपभोगपरिमाण तैल इत्र ( क्रीम, स्नो, पाउडर आदि ) आदि सुगन्धित पदार्थ, पान, पत्ता, सुरती (बीड़ी, सिगार आदि ) फूल, माला आदि वरप्रसंगों, पत्नियों, कपड़ों तथा आभूषणों आदि उपभोग भोगोंको अपनी सात्त्विक आवश्यकताके अनुकूल तालिका बनाकर शेष सबके त्यागको भोगोपभोग-परिमाणव्रत कहते हैं ।। ११८ ॥
अनर्थ-दण्डत्याग डंडा फंसानेकी पास या रस्सी, चूहोंको स्वाभाविक शत्रु बिल्ली, विष, शस्त्र, आग, सांकल आदि ऐसी वस्तुएँ हैं जिनके द्वारा मनुष्य दूसरोंका सरलतासे वध कर सकता है। तथा उतनी ही आसानीसे आत्महत्या भी कर सकता है इन्हें किसीको न देना ॥ ११९ ॥
दूसरोंके नाक, कान आदि अंग न छिदवाना, न कटवाना, किसोको हत्या न करवाना, प्राणिमात्रको बन्धनमें डालनेका हेतु न होना तथा पशुओं तथा अन्य सब हो प्राणियोंपर उनकी सामर्थ्यसे अधिक भार न लदवाना, यह सब ही तीसरा अनर्थदण्डत्याग गुणव्रत है ।। १२० ।।
सामायिक चित्तको एकान और शान्त करनेके कारण जो सबसे उत्तम शरण हैं ऐसे वीतराग प्रभुके आदर्शको पंच नमस्कार मंत्रके उच्चारणपूर्वक प्रातःकाल तथा सन्ध्या समय अप्रमत्त होकर मनसे सदा चिन्तवन करना सामायिक व्रत है ।। १२१ ।।
न्चारमाध्यमाच्या
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१.क बिरालाश्च ।
२. म योग्येषु ।
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