SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बराङ्ग परितम् समता सर्वभूतेषु संयमः शुभभावनाः। आर्तरौद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिक व्रतम् ॥ १२२॥ मासे चत्वारि पर्वाणि तान्युपोष्याणि यत्नतः । मनोवाक्कायसंगुप्त्या स प्रोष'धविधिः स्मृतः ॥ १२३ ॥ चतुर्विधो वराहारः संयतेभ्यः प्रदीयते । श्रद्धादिगुणसंपत्त्या तत्स्यादतिथिपूजनम् ॥ १२४ ।। बाह्याभ्यन्तरनैःसंग्याद्गृहीत्वा तु महाव्रतम् । मरणान्ते तनुत्यागः सल्लेखः स प्रकीयंते ॥ १२५॥ इत्येतानि व्रतान्यत्र विधिना द्वादशापि ये। परिपाल्य तनु त्यक्त्वा ते दिवं यान्ति सव्रताः ॥ १२६ ॥ पञ्चदशः सर्ग: eHASHeSeedesiresumeme-wearesawesur-SIPATHOSHDHIS संसारके प्राणियोंके योनि, श्रेणि, कूल तथा गोत्रकृत भेदको भुलाकर सबको एकसा समझना, इन्द्रियों और मनको चंचलताको रोकना, स्व तथा परके लिए कल्याणकारक शुभ विचारोंको हृदयमें स्थान देना, दुःख, शोक, हानिके विचारोंसे उत्पन्न आर्तध्यान, वैर, प्रतिशोध आदि भावमय रौद्रध्यानको छोड़कर पूर्ण प्रयत्नपूर्वक चित्तको जिनेन्द्रके आदर्शमें लोन करनेको ही सामायिक शिक्षाव्रत कहते हैं । १२२ ॥ प्रोषधोपवास प्रत्येक मासमें दो अष्टमी तथा दो चतुर्दशी होती हैं। इस प्रकार कुल चार पर्व होते हैं। इन चारों पर्व दिनों में मनोगुप्ति ( मनका पूर्ण नियन्त्रण ) वचनगुप्ति ( बचनका पूर्ण नियंत्रण ) तथा कायगुप्ति ( कायका पूर्ण नियंत्रण ) का पालन । करते हुए अत्यन्त सावधानीके साथ एकाशन या उपवास करनेको ही प्रोषध शिक्षाव्रत बताया हे ।। १२३ ।। अतिथिसंविभाग निग्रन्थ संयमी मुनिराज शरीरकी स्थितिके लिए हो शास्त्र में बतायो गयो विधिके अनुसार परम पवित्रतापूर्वक तैयार किये गये खाद्य, पेय आदि चार प्रकारके ही आहारको ग्रहण कर सकते हैं। अतएव उन्हें इस प्रकारके प्रासुक भोजनको श्रद्धा, भक्ति आदि दाताके आठ गुणोंके साथ नवधाभक्तिपूर्वक देनेको अतिथि पूजन ( संविभाग ) नामका तीसरा शिक्षाव्रत कहते सल्लेखना प्रामाणिक निर्यापकाचार्यके मुखसे जीवनके अन्तको निकट समझ कर दस प्रकारके बाह्य तथा चौदह प्रकारके में अभ्यन्तर, इस प्रकार चौबीसों प्रकारके परिग्रहको पूर्णरूपसे त्यागकर पूर्ण अपरिग्रही रूपको प्राप्त करके अहिंसा आदि पाँचों महाव्रतोंको धारण कर लेना तथा मृत्यु आनेपर ऐसी विशुद्ध अवस्थामें शरीर छोड़नेको सल्लेखना शिक्षाव्रत कहते हैं ।। १२५ ।। इस प्रकार मैंने बारहों व्रतोंके संक्षिप्त लक्षण कहे हैं। मनुष्य भवमें जो प्राणी इन सबका विधिपूर्वक पालन करते हैं [२७८) तथा अन्तमें मरण भी व्रतोंकी विधिके अनुसार ही करते हैं वे सच्चे व्रती श्रावक निश्चयसे अगले भवमें स्वर्ग पाते हैं ॥ १२६ ॥ १.क संप्रोषधविधिः । Jain Education international For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy